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आख़िर संजीव भट्ट को ही सज़ा क्यों? दुश्मनी की भेंट चढ़े कुछ वरिष्ठ अधिकारियों की दर्दभरी कहानी।

रिपोर्ट – सज्जाद अली नयाने

गुजरात – पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को 1990 में हिरासत में हुई कथित मौत के लिए उम्रक़ैद की सज़ा मिली है जबकि गुजरात का इतिहास देखने के बाद पता चलता है कि इस प्रकार के अपराध में बहुत ही कम पुलिसकर्मियों को सज़ा मिली है।

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नज़र डालने से पता चलता है कि गुजरात में 2001 से 2016 तक 180 लोगों की मौत पुलिस हिरासत में हुई जबकि इस दौरान किसी भी पुलिसकर्मी को इन मौतों के लिए सजा नहीं हुई। पुलिस की कस्टडी में मौत के सबसे अधिक मामले उत्तर प्रदेश के हैं जहां 1557 मामले दर्ज किए गये जबकि इनके लिए केवल 26 पुलिसकर्मियों को सज़ाएं हुई हैं।

संजीव भट्ट का मामला नवंबर 1990 का है जब उन्होंने जाम नगर के जोधपुर शहर में दंगे भड़काने के लिए 110 से 150 लोगों को भारत बंद के दिन हिरासत में लिया था, यह वही दिन था जब भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा ख़त्म हुई थी।

जिन लोगों को हिरासत में लिया गया था उनमें एक प्रभुनाथ वैष्णानी भी थे, जिन्हें हिरासत में लिए जाने के नौ दिन बाद ज़मानत पर रिहा गया था और कथित तौर पर रिहा होने के 10 दिन बाद उनकी मौत हो गई थी। उनके भाई अमृतलाल ने भट्ट समेत आठ पुलिसकर्मियों पर हिरासत में प्रताड़ित करने का आरोप लगाते हुए शिकायत दर्ज करवाई थी।

मजिस्ट्रेट ने इस मामले का संज्ञान 1995 में लिया था लेकिन इस मामले की सुनवाई पर गुजरात हाईकोर्ट द्वारा 2011 तक स्टे लगा दिया गया था। जैसा कि देखने में मिलता है कि हिरासत में हिंसा और मौत के मामलों में राज्य सरकार, अपनी पुलिस के साथ खड़ी नज़र आती है किन्तु भट्ट के मामले में ऐसा नहीं दिखता।

पुलिस की जवाबदेही तय करने की सख्त ज़रूरत है लेकिन इन आंकड़ों के बीच उस मामले को देखा जाना भी ज़रूरी है, जिसके चलते संजीव भट्ट और उनके साथ एक अन्य पुलिसकर्मी प्रवीनसिंह जाला को लगभग 30 साल पहले हुए एक मामले में दोषी पाया गया है।

संजीव भट्ट को पद से हटाकर उनकी शक्तियां छीनने, 22 साल पुराने ड्रग रखने के मामले में हिरासत में लेने और कस्टडी में हुई एक मौत के लिए उम्रकैद की सज़ा मांगने में गुजरात की क़ानून व्यवस्था अति सक्रिय नज़र आई।

पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट ने द वायर से बात करते हुए बताया था कि किस तरह भट्ट और उनके परिवार को शर्मिंदा करने के लिए कुछ असामान्य तरीक़े अपनाए गए। बिना बताए उनकी सुरक्षा हटा ली गई। एजेंसी के अधिकारी श्वेता के पति से पूछताछ करने के लिए कथित तौर पर उनके बेडरूम में घुस गए जब वे अंदर सो रही थीं और म्युनिसिपल कॉरपोरेशन ने उनके 23 साल पुराने घर में ‘अवैध निर्माण’ को तोड़ने के लिए कथित तौर पर मज़दूर भेजे थे।
इस कथित प्रताड़ना की शुरुआत 2011 में हुई जब भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफ़नामा दायर किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों से पहले वाली रात में एक मीटिंग में हिस्सा लिया था।

उनका आरोप था कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस मीटिंग में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों से गोधरा ट्रेन हादसे के बाद ‘हिंदुओं को मुस्लिमों के ख़िलाफ़ अपना गुस्सा निकाल लेने’ के लिए कहा था।

ज्ञात रहे कि 2002 हिंसा और लगातार हुए कथित फ़र्ज़ी एनकाउंटर की जांच करने वाले कई पुलिस अधिकारियों को कथित तौर पर गुजरात सरकार द्वारा निशाना बनाया गया और उन्हें अब तक इसके नतीजे भुगतने पड़ रहे हैं।

राहुल शर्मा और आरबी. श्रीकुमार जैसे अधिकारियों को निशाना बनाया गया जिन्होंने भट्ट की ही तरह नानावटी कमीशन के सामने दंगों में सरकार के लिप्त होने की गवाही दी थी।

सतीश वर्मा कुलदीप शर्मा को भी निशाना बनाया गया जिनमें से सतीश शर्मा इशरत जहां एनकाउंटर जांच करने वाली एसआईटी का हिस्सा थे जबकि कुलदीप शर्मा ने भ्रष्टाचार के मामले की जांच की थी जिसमें अमित शाह शामिल थे।

गुजरात कैडर के आईपीएस अधिकारी रजनीश राय को 2018 के अंत में गृह मंत्रालय द्वारा सस्पेंड कर दिया गया था जो सोहराबुद्दीन शैख़ एनकाउंटर मामले में पहले जांचकर्ता थे।

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