मुस्लिम बहुल लोकसभा सीट किशनगंज से 1999 में उन्होंने जीत हासिल की थी और केंद्रीय मंत्री बने थे। इसके बाद 2004 में सरकार चली गई, लेकिन वह भाजपा के प्रमुख चेहरे बने रहे। उनके सियासी ग्राफ में गिरावट की शुरुआत 2014 से तब हुई, जब वह भागलपुर लोकसभा सीट से 2014 में चुनाव ही हार गए। इसके बाद 2019 में उन्हें टिकट ही नहीं मिल पाया। हालांकि उन्हें 2014 में राष्ट्रीय प्रवक्ता बना दिया गया था। इस पद पर वह 2021 तक बने रहे और फिर उन्हें बिहार विधानपरिषद में भेजा गया। इसके बाद वह बिहार के उद्योग मंत्री चुने गए। भले ही उन्हें इसके जरिए कुछ मिला था, लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में उनकी एंट्री की उम्मीद भी खत्म होती दिखी। अब केंद्रीय चुनाव समिति से हटाए जाने के बाद ये संकेत और गहरे हो गए हैं।
एक फैसले के लिए 6 साल तक शाहनवाज ने किया मंथन
भाजपा ने उन्हें 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव में उतरने को कहा था, तब उन्होंने इससे इनकार कर दिया था। उनका मानना था कि केंद्रीय मंत्री रहे शख्स का यूं विधानसभा चुनाव में उतरना एक तरह का डिमोशन है। वह नेशनल पॉलिटिक्स को छोड़कर बिहार आने के लिए तैयार ही नहीं थे, लेकिन 2021 में यह भूमिका स्वीकार करनी पड़ी और अब उसमें भी झटका लग गया है। भाजपा के आंतरिक सूत्र कहते हैं कि शाहनवाज हुसैन ने अटल और आडवाणी के दौर में ग्रोथ की थी। उनके आडवाणी से अच्छे संबंध थे और पीएम नरेंद्र मोदी के दौर में वह उन नेताओं में शामिल नहीं हो पाए, जो उनका भरोसा जीत सकें।
बिहार में शाहनवाज हुसैन को क्या रोल देगी भाजपा?
माना जाता है कि उनके करियर के ग्राफ की तेजी से बढ़ने की यह भी एक वजह है। हालांकि मुसीबतों का अंत यही नहीं हुआ और नीतीश के पालादल ने बिहार के मंत्री का पद भी उनसे छीन लिया। फिलहाल यह साफ नहीं है कि भाजपा उनका कैसे और कहां इस्तेमाल करेगी। कयास यह भी हैं कि सुशील मोदी को केंद्र की राजनीति में लाने के बाद उन्हें बिहार में कुछ अहम जिम्मा मिल सकता है। उनके जरिए भाजपा बिहार में मुस्लिमों को संदेश देने की कोशिश कर सकती है। लेकिन फिलहाल यह साफ नहीं है और 17 साल से भाजपा की केंद्रीय चुनाव समिति का हिस्सा रहे शाहनवाज हुसैन अब उससे भी बाहर हो गए हैं।