क्यों हैं कलम खामोश ! क्यों है पत्रकारिता लाचार ! घनबल के आगे मीडिया हाऊस ढेर ! – मानवाधिकार अभिव्यक्ति
ये लोग इमरजेंसी वाले इंदिरा/ संजय गिरोह से भी ज़्यादा खतरनाक हैं, और ज़्यादा शातिर भी….लोकतंत्र के चौथे खम्भे को पालतू बनाने के लिए इंदिरा गाँधी को कानून का डंडा फटकारना पड़ा था, जिसके लिए उन्होंने बाद में माफ़ी भी मांगी. इन्होने चतुराई से काम लिया. सबसे पहले अपने धनपशुओं की दौलत से समाचार प्रतिष्ठानों के शेयर खरीदे, उन पर कब्ज़ा किया, अपने नए चैनल निकाले और फिर भी जब कुछ आवाज़ें खामोश नहीं हुईं तो उन्हें नौकरी से निकलवा दिया. खंडेकर, पुण्य प्रसून और अभिसार को सरकार ने नहीं चैनल मालिकों ने निकाला. ज़ाहिर है कि ये काम सरकार के दबाब में ही हुआ. विरोध की आवाज़ पर हुए इस शर्मनाक हमले का प्रतिकार कोई करे भी तो कैसे और कहाँ. कौन सा अखबार और कौन सा न्यूज़ चैनल है जो ईमानदारी से इसके विरुद्ध आवाज़ उठा पायेगा।
अब तो एक ही रास्ता बचा है…सड़कों पर उतरकर विरोध की आवाज़ बुलंद की जाए. ये मानकर चलिए कि टीवी चैनलों और अख़बारों में ये खबर नहीं छपेगी. न छपे. इमरजेंसी की ज़्यादतियों की ख़बरें कितने अखबारों ने छापी थीं।
इससे पहले भी जब जब मीडिया में विरोध का स्वर दबाने की साजिश हुयी, पत्रकारों की आज़ादी पर हमला हुआ पत्रकारों के कई संगठन थे जिन्होने एक स्वर में आवाज़ उठाई, धरना प्रदर्शन किये और सरकारों को झुकना पड़ा. ये सही है कि इस बार ये शातिर सरकार पीछे से छुपकर वार कर रही है. लेकिन इस तिकड़म का जबाब भी तो दिया ही जाना चाहिए. आज अगर पत्रकार संगठन खामोश रहे तो फिर कभी आवाज़ उठाने लायक नहीं रहेंगे।
पुण्य प्रसून वाजपेई का ABP News से इस्तीफा। प्राइम टाइम कार्यक्रम बंद करवाया गया। सरकार के दबाव के चलते कई दिन से प्रसून का प्रोग्राम ‘मास्टरस्ट्रोक’ स्क्रीन पर बाधित किया जा रहा था। सैटेलाइट से गड़बड़ी पैदा की जा रही थी। आज प्रसून दफ्तर आए तो उनसे कहा गया कि वे अपना काम कर के चले जाएं। संभव है कि आज ही उनके शो का आखिरी दिन हो।
बहरहाल वे दफ्तर से निकल गए और खबर आम हो गई कि उन्हें कल से आने को माना कर दिया गया है। इससे पहले कल चैनल के प्रबंध संपादक मिलिंद खांडेकर ने इस्तीफा दिया था।
प्रसून के अलावा अभिसार शर्मा को भी लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया है। सरकार को रास न आने वाली खबरों के चलते ABP News में संपादकीय कत्लेआम मच चुका है। माना जा रहा है सरकार का अगला कोपभाजन कई और बड़े पत्रकार बन सकते हैं।
एबीपी न्यूज़ के संपादक मिलिंद खांडेकर की चैनल से रवानगी के 24 घंटे के भीतर ही मास्टरस्ट्रोक के प्रस्तुतकर्ता पुण्य प्रसून वाजपेई की भी विदाई हो गयी। नादान, यथास्थितिवादी या फिर सुविधा भोगी हैं वे जिन्हें लगता है कि इमरजेंसी सिर्फ कांग्रेस के राज में लगी थी। मीडिया पर सरकार का दबाव किस हद तक बढ़ चुका है यह उसकी ताज़ा मिसाल है। सवाल एक या दो संपादकों या चंद मीडिया कर्मियों का ही नहीं है, सवाल आम लोगों की आवाज़ का है, विरोध में उभरने वाले स्वरों को दबाने की कोशिशों का है। निंदनीय है, शर्मनाक है। जो सरकार के आगे घुटने टेक चुके हैं, शरणागत हैं या सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं, वे सुरक्षित हैं, संरक्षित हैं।
इस दौर में जनता को भी तय करना होगा वह कैसा मीडिया चाहती है। समय चुप रहने का नहीं है।