लद्दाख़ को लेकर कुछ महीने पूर्व तक अधिकतर टीकाकारों को लग रहा था कि चीन उन इलाक़ों से सायद पीछे नहीं हटेगा जिस उसने क़ब्ज़ा लिया है। लेकिन इसके भी कई कारण थे बीजिंग को जिसने अपना रूख़ बदलने पर मजबूर कर दिया।
चीन की नियत पर बहुत से लोगों को शक था और उनका ख़्याल था कि अगर पीएलए उक्त जगह से पीछे हटती है, बीजिंग तब भी किसी न किसी तरह बैकडोर से वापस आ जाएगा। चीन पर भरोसा करना मुश्किल है, यही वजह है कि भारतीय रक्षा मंत्री ने चरणबद्ध, समन्वित व वेरिफ़ाइड तरीक़े की बात कही।
पिछले साल 16 जून को शी जिन्पिंग की बर्थडे पर गलवान घटना घटी जिसमें 20 भारतीय जवान और कई अफ़सरों की जान का नुक़सान हुआ और आपस में विश्वास ख़त्म हो गया। नए टकराव की बढ़ती संभावना के बीच, दोनों पक्षों ने डिस्इन्गेज या अलग होने का फ़ैसला किया।
चीन के नए शासक ख़ुद को वैश्विक मंच पर शांति प्रिय दिखाना चाहते हैं। हाल में दावोस में वर्ल्ड इकनॉमिक फ़ोरम को ख़िताब करते हुए शी ने दृढ़ता से कहाः “टकराव और दुश्मनी की ग़लत मुद्रा के नतीजे में सभी देशों के हितों के नुक़सान पहुंचता है और इससे हर एक का सुख प्रभावित होता है।” उन्होंने ढिंढोरा पीटा “ताक़तवर को कमज़ोर को धमकाना नहीं चाहिए, हमें, अपने प्रभुत्व के बजाए अंतर्राष्ट्रीय क़ानून का पालन करना चाहिए।”
दूसरे भाषण में शी ने अपने लक्ष्य का ज़िक्र कियाः “समय और गति चीन के पक्ष में है।” नया माओ ज़ेदॉन्ग (शी जिन्पिंग) चीनी राष्ट्र को फिर से जवान करने पर विश्वास करते हैं और कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना सीपीसी जुलाई में 100 साल की हो जाएगी।
शी के लक्ष्य सौ साल की दो घटनाओं की ओर इशारा है। एक सीपीसी जुलाई 2021 में 100 साल की होगी जिससे पहले, संतुलित धनी समाज का लक्ष्य हासिल हो जाएगा और 2049 में पिपल्ज़ रिपब्लिक ऑफ़ चाइना के 100 साल होने की सालग्रह एक “मज़बूत, प्रजातांत्रिक, सभ्य, सुव्यवस्थित व आधुनिक देश देखना चाहती है।” भारत के साथ जंग, शी की योजना से इस समय मेल नहीं खाती।
लोच और प्राकृतिक नज़र से भारतीय जवानों की मज़बूती से चीनी नेतृत्व को हैरत हुयी होगी जो चीनी जवानों की तुलना में मौसमी सख़्ती में बहुत बेहतर ढंग से ढल गए। शायद मौसम और ज़्यादा ऊंचाई, चीनी फ़ौजियों के स्वास्थ्य की नज़र से ज़्यादा नुक़सान की वजह है।
बीजिंग को हैरत में डालने वाली दूसरी बात यह थी कि भारतीय सेना की लेह स्थित चौदहवी कॉर के कमांडर को बातचीत की ज़िम्मेदारी सौंपी गयी। यह आज़ादी के बाद इस तरह की पहली घटना है। विदेश मंत्रालय के ज़्यादातर अधिकारियों की नज़र में बातचीत, कम्प्रोमाइज़ करने की कला है। एक फ़ौजी, एक कूटनयिक की तुलना में यह बात बेहतर जानता है कि पहाड़ी क्षेत्र का कुछ सौ मीटर का इलाक़ा कितना निर्णायक हो सकता है। भारतीय सेना ने हालात को अप्रैल 2020 जैसा वापस लाने के लिए धैर्य, इच्छा शक्ति और दृढ़ता दिखाई।
हमें मौजूदा डिस्इन्गेजनेंट को ऐतिहासिक संदर्भ में भी देखना होगा।
भारतीय अक्साई चीन में चीन द्वारा 1952-53 में सड़क बनाए जाने की जानकारी होने के बावजदू, दिल्ली की तत्कालीन सरकार ख़ामोश रही और उस लापरवाही ने भारत को जटिल हालात में पहुंचा दिया। 18 अक्तूबर 1958 को भारतीय विदेश सचिव ने चीनी राजदूत को अनाधिकारिक नोट में कहा था कि नई दिल्ली को पता था कि चीन “जम्मू कश्मीर राज्य के लद्दाख़ क्षेत्र के पूरे पूर्वी भाग में, जो भारत का हिस्सा है… जिसके पूरे होने का सितंबर 1957 में एलान हुआ था।” सड़क बना रहा था। अगर बीजिंग ने सड़क के उद्घाटन का एलान न किया होता तो शायद दिल्ली कुछ और समय तक इसे राज़ ही रहने देता। ऐसे पाताल से हालात को बहाल करने के लिए धैर्य, सहनशीलता और दृढ़ता की ज़रूरत होती है।
उम्मीद के साथ पहला क़दम उठाया जा चुका है, लेकिन पूरी तरह सावधानी, वक़्त की ज़रूरत है।
(सौ.पीटी.)