देश की प्रशासनिक सेवा से जुड़े अधिकारी ही विधायिका और सरकार के अंग और उसके संरक्षक होते हैं।यह अधिकारी लोकसेवक होते हैं जिनका कार्य व्यस्थापिका को सुचारू रूप से संवैधानिक दायरे में संचालित करना होता है।जब सरकार नही रहती है तब भी यही अधिकारी कार्यपालिका का संचालन करते हैं और विदेशों में रहकर देश के राजदूत की भूमिका निभाते हैं। इन अधिकारियों से किसी राजनैतिक दलों से कोई वास्ता नहीं होता है और सभी को समान रुप से संवैधानिकता दायरे में न्याय दिलाना और कानून का राज बनाये रखना इन का परम दायित्व होता है।यह अधिकारी सरकार के नहीं बल्कि संविधान के अनुरूप कार्य सम्पादित करते हैं।यहीं अधिकारी देश प्रदेश का सचिवालय और मंत्रालय भी चलाते हैं। सरकार पांच साल में बदल जाती है लेकिन यह अधिकारी साठ साल तक यथावत अपनी कुर्सी पर बने रहते हैं।सत्ता में चाहे जिस राजनैतिक दल की सरकार हो उनकी योजनाओं एवं प्राथमिकताओं को मूर्ति रुप देने का कार्य यही अधिकारी होते हैं और इन्हें जिले में लोग भगवान या सरकार की तरह मानते और सम्मान करते हैं। यह प्रशासनिक अधिकारी देश में कहीं भी नियुक्त किये जा सकते हैं इनका मुख्य कार्य प्रशासन चलाना और सरकारी नीतियों रीतियों को आम लोगों तक पहुंचाना होता है।इधर राजनीति के साथ इन अधिकारियों की कार्यशैली में बदलाव आया है और जिसकी सरकार बनती है वह अपनी मानसिकता वाले विश्वास पात्र अधिकारियों की महत्वपूर्ण जगहों पर तैनात करता है।इधर बदलते राजनैतिक परिवेष में कुछ अधिकारी राजनेताओं के गुलाम जैसे हो गये हैं और वह मलाईदार वाले स्थान पर पोस्टिंग के चक्कर में हाथ पैर ही नहीं जोड़ते हैं बल्कि जूते तक उठाने एवं पहनाने में संकोच नहीं करते हैं। इधर सरकारी योजनाओं में राजनेताओं और इन जिम्मेदार अधिकारियों ने खूब लूट खसोट किया जिसके फलस्वरूप तमाम लोगों पर मुकदमा चल रहा है और कई अधिकारियों की जांच के दौरान मौत तक हो चुकी है। तमाम जाँचें चल रही हैं और इन जिम्मेदार अधिकारियों पर तलवार लटक रही है।इनके कई राजनैतिक आका भी इनके साथ जेल में बंद है या सजा काट रहें हैं। इधर कुछ प्रशासनिक अधिकारियों ने राजनेताओं से सांठगांठ करके एक गिरोह बना लिया है जिसका प्रतिफल उनके साथ ही देश को भुगतना पड़ रहा है। कुछ अधिकारी लुकछिप कर तो कुछ खुलकर अपने आका का साथ देते हैं जैसा कि अभी दो तीन दिन पहले एक जिलाधिकारी की स्वामिभक्ति उजागर हुयी है। कानून की मार से राजनैतिक मैदान से बाहर होने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालूप्रसाद यादव की सजा कम करने की सिफारिश सीबीआई जज से करने का गंभीर आरोप जालौन के जिलाधिकारी मन्नान अख्तर पर लगाया गया है।सरकार ने पूरे मामले के जांच के निर्देश दिये हैं जबकि आरोपी डीएम ने अपने ऊपर लग रहे आरोपों का खंडन करते हुए फोन पर वार्ता करने से साफ इंकार किया है। डीएम साहब का कहना है कि फोन पर बात नहीं हुयी है बल्कि पिछले महीने जज साहब खुद अपने गाँव घर की समस्या को लेकर आये थे। इतना तो साफ ही है कि जिलाधिकारी और जज साहब पूर्व परिचित हैं और दोनों का एक दूसरे से स्वार्थ से बंधे भी हो सकते हैं।अबतक सारे आरोप हवा हवाई मीडिया के माध्यम से ही सामने आये हैं किसी ने इसकी शिकायत नहीं दर्ज कराई है। लालूप्रसाद जी भले ही आज राजनैतिक जीवन के दुर्दिन झेल रहे हो लेकिन यह कोई मत भूले कि वह और उनकी पत्नी लम्बे समय से सत्ता में रहे हैं और इस दौरान तमाम प्रशासनिक अधिकारी उनके कृपा पात्र रहें होगें। प्रशासनिक अधिकारियों का राजनीतिकरण होना लोकतंत्र के लिए दुर्भाग्य की बात है जिस पर तत्काल रोक लगाने की जरुरत है।
लेखक – भोलानाथ मिश्र
वरिष्ठ पत्रकार/समाजसेवी