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Sunday, May 5, 2024

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आपकी अभिव्यक्ति : ‘चीफ जस्टिस’ के साथ केन्द्र सरकार का ‘एच.ओ.डी’ जैसा व्यवहार ? – उमेश त्रिवेदी

फिलवक्त न्यायपालिका से जुड़ी यह खबर सनसनी के रस्सों पर सबसे ज्यादा गुलाटियां खा रही है कि कांग्रेस सहित अनेक विपक्षी दल सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ लोकसभा में महाभियोग का प्रस्ताव लाने की तैयारियां कर रहे हैं। दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग की कहानी अभी पूरी तरह पकी नहीं है, लेकिन उसके रेशे हवाओं में तैरने लगे हैं। सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के विरुध्द विपक्षी दलों की यह पहल सामान्य राजनीतिक घटना नहीं है। इसके हर हिज्जे का व्यापक विश्लेषण किया जाना जरूरी है।
राजनीति के मायोपिक (कम-दृष्टि) चश्मे में विपक्ष की यह पहल राम-मंदिर, तीन तलाक, न्यायपालिका पर सरकारी नियंत्रण या जस्टिस लोया की संदिग्ध मौत जैसे अनेक मुकदमों के दायरों में सिमटी नजर आएगी, लेकिन यदि इसे संवैधानिक दृष्टांतो के साथ सतर्क ‘दूरदृष्टि’ के साथ सतर्कता से पढ़ेंगे और सुनेंगे, तो इसमें लोकतंत्र के आकाश में गहराती गिध्द-कथाओं की कर्कशता के बादलों की गड़गड़ाहट दिखाई और सुनाई पड़ेगी। दिलचस्प है कि जिस भारतीय-न्यापालिका के न्यायविदों के बीच ‘ज्यूडिशियल-एक्टिविज्म’ के पहलुओं को लेकर हमेशा मत-भिन्नता रही हो, वह ज्युडिशयरी में ‘पोलिटिकल-एक्टिविज्म की दस्तक को कैसे कबूल करेंगे?
लोकतंत्र में जनादेश की आड़ में इन दिनों जो कुछ भी घट रहा है, उसकी पवित्रता संदेहों से परे नहीं है। देश उस राजनीतिक अनहोनी की ओर बढ़ रहा है, जहां निरंकुशता का अंकुश दिन ब दिन पैना होता जा रहा है। भारत के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की पहल लोकतंत्र की फिसलन का वो प्रतीकात्मक प्रतिरोध है, परास्त होना जिसकी नियति है। इस पराभव में फिर भी लोकतांत्रिक मर्यादाओं के लिए सतर्क रहने का आव्हान है। संवैधानिक व्यवस्थाओं की धुरी न्यायपालिका का वह स्वतंत्र निजाम है, जिसकी रहनुमाई में भारत का लोकतंत्र अब तक फूलता-फलता रहा है।
राजनीति याने विधायिका के साथ कार्यपालिका और बहुतायत मीडिया के घालमेल की अंधेरी लड़ाइयों में न्यायपालिका के रोशनदान हमेशा खुले रहे हैं, फिलवक्त न्याय पालिका के रोशनदानों से अंधेरों की आहट चिंताएं पैदा कर रही है। भारतीय लोकतंत्र की बड़ी त्रासदी यह है कि विधायिका, कार्यपालिका और कथित रूप से लोकतंत्र का चौथा खंभा माने जाने वाले मीडिया की विश्वसनीयता तेजी से छरने और झड़ने लगी है। अब न्यायपालिका से बंधी उम्मीदों की डोर भी टूटती सी महसूस हो रही है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग का यह प्रस्ताव लोकतंत्र की उन बेचैनियों और पिघलती उम्मीदों को रेखांकित करता है, जो लोगों के जहन में घेरा बनाकर उपद्रव कर रही हैं।
राज्यसभा में महाभियोग के प्रस्ताव लाने के लिए कांग्रेस के साथ डीएमके, सपा, एऩसीपी और वामपंथी सांसद सक्रिय हैं। सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली पर संदेह के बादल कई दिनों से मंडरा रहे हैं। सबसे पहले 12 जनवरी, 2018 को देश के चार वरिष्ठ जज जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ ने न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार प्रेस-कांफ्रेंस करके सुप्रीम कोर्ट में चल रही अनियमितताओं की ओर आम जनता का ध्यान आकर्षित किया था। उस समय चारों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को संबोधित पत्र में आगाह किया था कि ‘हम चारों इस बात से सहमत हैं कि इस संस्थान को बचाया नहीं गया तो इस देश में या किसी भी देश में लोकतंत्र जिंदा नहीं रह पाएगा। स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका अच्छे लोकतंत्र की निशानी है।’
चारों वरिष्ठ न्यायाधीशों व्दारा 12 जनवरी को लिखे पत्र की उम्र ढाई माह से ज्यादा हो चुकी है, लेकिन समाधान के बिंदु आकार ग्रहण करते नजर नहीं आ रहे हैं। वरिष्ठ जजों के साथ-साथ न्यायपालिका में सक्रिय न्यायविद और वकील केन्द्र सरकार के प्रति सुप्रीम कोर्ट के नेतृत्व के लचीलेपन को लेकर चिंतित हैं। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा को लिखा न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर का ताजा पत्र इन्ही चिंताओं को व्यक्त करता है। उनका कहना है कि- ‘हम पर, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर, अपनी स्वतंत्रता के साथ समझौता करने और हमारी संस्थागत अखंडता के अतिक्रमण के आरोप लगाए जा रहे हैं। कार्यपालिका हमेशा अधीर होती है और कर सकने में सक्षम होने पर भी न्यायपालिका की अवज्ञा नहीं करती है, लेकिन इस तरह की कोशिशें की जा रही हैं कि चीफ जस्टिस के साथ वैसा ही व्यवहार हो जैसा सचिवालय के विभाग प्रमुख के साथ किया जाता है।’ जजों की वरिष्ठता सूची में देश के दूसरे क्रम पर विराजमान एक न्यायमूर्ति के इस ‘ऑब्जर्वेशन’ को अनदेखा करना देश के लोकतंत्र के साथ आत्मघाती अन्याय होगा। चीफ जस्टिस के विरुध्द विपक्ष के महाभियोग के सिरे भी वरिष्ठ न्यायाधीशों की इन्हीं चिंताओं से जुड़े नजर आते हैं। सुप्रीम कोर्ट का स्वायत्त वजूद लोकतंत्र की आत्मा को प्रदीप्त करता है। निरंकुशता की आंधी में यह दिया बुझना नहीं चाहिए…।

– लेखक सुबह सवेरे के प्रधान संपादक

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