अबोहर – प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक के दौर से गुजर कर डिजिटल युग में पहुंच चुकी है। जिससे पत्रकारिता को नए आयाम मिले हैं। साथ ही पत्रकारिता को पक्षकारिता में तब्दील कर दिया गया है। पहले पत्रकारिता का बाजारीकरण हुआ अब पत्रकारिता का राजनीतिकरण हो चुका है। जिस कारण लोग अब पत्रकारों से अक्सर यही सवाल करते हैं कि आप किस राजनीतिक दल के पत्रकार हो? जी हां यह बात सोलह आने सच है?
जैसा कि मैंने शीर्षक लिखा है कि ‘जिस पत्रकार के चार खसम उसकी पत्रकारिता खतम’ इस शीर्षक का अर्थ उन पत्रकारों के लिए समझना बहुत जरूरी है जो खुद का कद बड़ा करने की कवायद में चार मीडिया संस्थानों में काम करते हैं और कहीं से एक ढेला भी नही मिलता। कुल मिलाकर द्रोपदी रूपी पत्रकारों की जबर कोशिशों का नतीजा सिफर ही रहता है और ऐसे पत्रकारों को पत्रकारिता की द्रोपदी की उपाधि मिल जाती है।
द्रोपदी के बारे में आप भलीभांति जानते होंगे और द्रोपदी के पतियों के विषय में भी विस्तार से बताने की आवश्यकता नही है। द्रोपदी का नाम धर्म से जुड़ा हुआ है और मुझपर एक धर्म के खिलाफ लिखने के आरोप लगते रहते हैं। इसलिए द्रोपदी के संबंध में विस्तार से नही लिखूंगा। समझदार के लिए इशारा काफी है। चार खसम वाले पत्रकारों और द्रोपदी में ज्यादा फर्क नही है।
उन पत्रकारों को हमेशा सम्मान मिला है और मिलता रहेगा जो एक संस्थान के लिए समर्पित होते हैं। अगर किसी कारणवश कोई पत्रकार एक संस्थान को छोड़कर दूसरे संस्थान में चला जाता है तो पहले संस्थान से उसके सारे संबंध खत्म हो जाते हैं लेकिन संस्थान में काम करने वाले सहकर्मियों से संबंध बरकरार रहते हैं। इसलिए वह सम्मान का पात्र होता है, लेकिन डिजिटल पत्रकारिता के इस युग में चार संस्थानों में काम करने वाला इंसान खुद को बहुत बड़ा पत्रकार समझता है। वो उसकी सबसे बड़ी भूल है क्योंकि चार संस्थानों का लेवल माथे पर लगा लेना गधे के गले में टाई बांधकर आरटीओ बना देने जैसा है।
पत्नी और वैश्या दोनों ही नारी हैं, लेकिन समाज में सिर्फ पत्नी ही सम्मान की पात्र होती है क्योंकि वह अपने पति के लिए समर्पित होती है। वैश्या को समाज में इसलिए सम्मान नही मिला क्योंकि वो कभी भी किसी के प्रति भी समर्पित हो सकती है। वैश्या को किसी के प्रति भी समर्पित होने की वजह से समाज में सम्मान नही मिला तो चार संस्थानों के संपादक को अपना खसम बनाने वाले पत्रकारों को कैसे सम्मान मिल सकता है।
भले ही चार खसम वाले पत्रकारों से कोई उनके मुंह पर कुछ न कहे लेकिन पीठ पीछे उनकी तुलना वैश्याओं से की जाती है। ऐसे पत्रकारों की तुलना वैश्याओं से करना गलत भी नही है। जो किसी एक संस्थान के प्रति समर्पित नही हुआ तो उसके किरदार और वैश्या के किरदार में क्या कोई फर्क बाकी बचता है। हकीकत तो यह है कि डिजिटल मीडिया के दौर में बढ़ते वेब पोर्टल की संख्या पत्रकारों को वैश्या बना रही है।