सौ. फाईल चित्र
ये कैसी विडम्बना है कि आरोपी व्यक्ति अपने आपको निर्दोष सिद्ध करने के लिये देश और शहीदों की अस्मिता को भी आतंकी भाषा बोल उसकी गरिमा को ध्वस्त करने पर अमादा हो जाये, वो भी सिर्फ राजनीतिक लाभ लेने के लिये कहाँ तक उचित माना जा सकता है ?
क्या प्रज्ञा ठाकुर के बयान सार ये नहीं कि जिस दिन उन्हे जेल में डाला गया, उसी दिन से शहीद हेमन्त करकरे को सूतक लग गया था, और ठीक सवा महीने में २६/११ (आतंकी हमला) को जब आतंकियों ने उन्हे मारा तो उसी दिन सूतक का अन्त हो गया ।
क्या इसका सारा लब्बोलवाब ये नहीं दर्शाता है कि प्रज्ञा ठाकुर ने आतंकयों की क्रूर कार्यवाही का समर्थन ही नहीं बल्कि ये साफ कर दिया की जब उन्हे जेल में डाला गया तो उन पर सूतक लग गया, यानि उसी दिन से शहीद हेमन्त करकरे पर आतंकियों की कुदृष्टि लग गयी ?
और जब २६/११ आतंकी हमले में जब देश के वीर शहीद आतंकियों की क्रूरता का शिकार हुये व तमाम शहीदों के साथ हेमन्त करकरे ने देश की सुरक्षा करते हुये अपना सर्वोच्च बलिदान कर दिया गया, वहीं प्रज्ञा ठाकुर के मुताबिक सवा महीने में शहीद करकरे को उनको उनके किये की सजा मिल गयी, इसका सार या संदेह ये नहीं निकलता है कि वो हमला एक सोची समझी साजिश के तहत किया गया ?
क्या अब सवाल यह नहीं उठता है कि हेमन्त करकरे जिस मामले पर जांच कर रहे थे तो वो सायद उस मामले के तह तक पहुँच गये थे ? जिस मामले में प्रज्ञा ठाकुर को जेल में डाला गया था ? जिसे लेकर प्रज्ञा ने आतंकी हमले का समर्थन किया, क्या ऐसे आरोपी द्वारा अपने आपको निर्दोष साबित करने के लिये ऐसा आतंकी बयान दिया जाना कितना उचित ?
देशद्रोही जैसा आरोप लगाने के बाद देश के शहीदों के परिवार के साथ-साथ शहीद हेमन्त करकरे के परिवार को जो आघात पहुँचा, क्या उससे देश की जनता आहत नहीं हुई ? क्या बीजेपी के द्वारा किनारा कर लेना व प्रज्ञा ठाकुर द्वारा उस अहंकारी भाव से बयान वापस ले लेना कितना न्यायसंगत है ?
क्या सत्ता पाने की ललक ने इतने निचले स्तर पर पहुंचा दिया ? जो प्रज्ञा ठाकुर के भीतर की आवाज या सोंच बाहर निकलकर आयी वो किस हद तक उचित समझी जाये ? क्या ऐसे सोंच और विचार के व्यक्ति हमारे देश की संसद की गरिमा बढ़ायेगी ? क्या ऐसे विचारधारा वाली सोंच लोकतन्त्र के लिये उचित ?
विचार अवश्य करें ?
-मानवाधिकार अभिव्यक्ति, आपकी अभिव्यक्ति ।