-रवि जी. निगम
ठाणे (मुंबई) – जनता के दिलों में उठ रही पीडा और मन में गूंज रहे सवालों के जवाब देश और प्रदेश सरकार को देना उचित नहीं ?
जनता के सवाल –
- क्या हाथरस में जो हुआ वो कानून की नज़र में मान्य ? क्या इसे घृणित अपराध की श्रेणी में रख कर नहीं देखा जाना चाहिये ?
- क्या जिला अधिकारी जिले का मुखिया नहीं होता है या प्रथम व्यक्ति नहीं ?
- तो 14 सित. 2020 को घटित घटना की जानकारी उन्हे प्राप्त नहीं हुई ?
- जब उक्त घटना की जानकारी उन्हे प्राप्त हो गई थी तो क्या उन्होने पीडिता से मिलकर सारी जानकारी प्राप्त करना उचित नहीं समझा ?
- यदि मुलाकात की तो उन्हे प्रथम दृष्टया क्या ज्ञात हुआ ?
- तो क्या उस वक्त वो (पीडिता) बोलने की क्षमता में थी या नहीं ?
- यदि नहीं, तो क्या कारण थे कि वो उस स्थिति में नहीं थी ?
- तो क्या पीडिता के परिवार ने घटना की वस्तु:स्थिति से अवगत नहीं करवाया ?
- उस वक्त डॉक्टरों के द्वारा पीडिता के शरीर का फिजिक़ल/इंटरनल एग्जामनेशन नहीं किया गया ?
- तो परिक्षण में क्या पाया गया ? क्या उसके आधार पर उसके उचित उपचार की व्यवस्था की गई ? यदि की गयी तो उसे क्यों नहीं बचाया जा सका ?
- उसके आधार पर आरोपियों के खिलाफ़ क्या कार्यवाही की गयी ? क्या मामले को गंभीरता से लिया गया, या मात्र खानापूर्ति ही की गयी ? या बचाने के ही सिर्फ प्रयास हुए ?
- सरकार के संज्ञान में ये मामला घटना के कितने दिनों के पश्चात आया ? सरकार ने इस घटना में कार्यवाही के क्या दिशा निर्देश दिये ? और उसे कब अमल में लाया गया ?
- उसके मृत्यु से एक-दो दिन पूर्व ही क्यों कार्यवाही में गंभीरता दिखाई गयी ? उसे तत्काल एम्स में क्योंकर नहीं ले जाया गया ?
- क्या बिना बयान दिये यानि की बोल न पाये और बयान दर्ज न करा पाये, उससे पहले ही उसकी मौत हो जाये ? इसका इंतजार किया जा रहा था ? ताकि हत्या का मामला सावित किया जा सके ?
- जिसका वर्णन अभी तक किया जा रहा है, जबकि पीडिता का उसकी मृत्यु से पूर्व बयान दर्ज किया जा चुका है जिसमे उसने स्वत: बयान दर्ज कराया है कि उसके साथ रेप हुआ है। (गौरतलब है कि, भरवाड़ा भोगिनभाई हीरजीभाई बनाम गुजरात राज्य (1983 (3) SCC 217) के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि भारतीय परिस्थितियों में सम्पुष्टि के बिना पीड़ित महिला की गवाही पर एक्शन लेने से मना करना, पीड़िता के जख्मों को और अपमानित करने जैसा है। अदालत ने इस मामले में कहा था कि एक महिला या लड़की जो यौन अपराध की शिकायत करती है उसे क्यों शक, अविश्वास और संशय की नज़रों से देखा जाये ? ऐसा करना एक पितृसत्तात्मक व्यवस्था के दुराग्रहों को उचित ठहरना होगा। )
- लेकिन जो सीमन की पुष्टि न होने की जांच का हवाला दिया जा रहा है, उसे घटना वाले दिन ही फॉरेंसिक लैब में जांच हेतु क्यों नहीं भेजा गया ?
- जबकि विशेषज्ञों के अनुसार तत्काल या दो से चार दिनों के भीतर जांच में ही पुष्टि की संभावना होती है या उसके पश्चात नष्ट होने की संभावना बढ जाती हैं, तो क्या विशेषज्ञों से परामर्श नहीं किया गया या उन्होने (सरकारी विशेषज्ञों ने) इस पर जानकारी उपलब्ध नहीं करायी ?
- पीडिता की मृत्यु के बाद पोस्ट्मार्टम की प्रक्रिया पूरी होने के पश्चात पीडिता का पार्थव शरीर उसके परिजनों को सौंपना क्योंकर उचित नहीं समझा गया ?
- यदि परिवार की सहमति से उसके (मृतक) पार्थव शरीर उसके घर तक पहुंचाने में मदद के रूप में प्रशासन द्वारा निर्णय लिया गया तो उसे मृतक के परिजनों को उनके घर क्योंकर नहीं पहुंचाया गया ?
- बकौल परिजन उनके आग्रह के बावजूद कि उनकी मृतक बेटी का पार्थव शरीर उन्हे सौंप दिया जाये ताकि वो अपनी पुत्री का अंतिम संस्कार अपने रीति-रिवाज़ व हिंदू मान्यता के अनुसार सूर्य निकलने के पश्चात अपने रिस्तेदारों आदि के साथ मिलकर पूरी कर सकें, तो उन्हे उनका अधिकार क्यों नहीं दिया गया ?
- क्योंकर उन्हे उनके अधिकारों से वंचित किया गया ? ये प्रक्रिया किसके आदेश से घटित की गयी ?
- ये ऊपर वाला आखिर है कौन ?
- संविधान के मुताबिक राज्य में ऊपर वाला अर्थात राज्यपाल जो राज्य का प्रथम नागरिक होता है उसके बाद मुख्यमंत्री तद्पश्चात जिले का जिला अधिकारी जो जिले का प्रथम नागरिक होता है, तो बकौल पुलिस प्रशासन ऊपर वाले का आदेश है, जिसका पालन किया जा रहा है, तो वो कौन सा ऊपर वाला है जिसके दिशा निर्देश पर इस घटना को अंजाम तक पहुंचाया गया ?
- संविधान में प्रावधानित मौलिक अधिकारों को ताख पर रख करके रेप पीडित मृतक को प्राकृतिक द्रव्य की सहायता से उसे जबरन पुलिस प्रशासन द्वारा अर्धरात्रि में फूंक दिया गया, ये कहाँ तक उचित है ?
- क्या इसी तरह कोई भी व्यक्ति (शासनिक/प्रशासनिक या आम व्यक्ति) किसी भी पीडित रेप या अन्य प्रकार से को मृत होने / कारित करने के पश्चात उसे परिवार के सहमति के बिना या उसकी उपस्थिति के बिना फूंका जा सकता है ?
- क्या उपरोक्त मामले में शासन / प्रशासन को ये अधिकार प्राप्त है ? क्या इन्हे कानूनी मान्यता प्राप्त है ?
- क्या ऐसे कृत्य घृणित अपराध की श्रेणी में नहीं आते हैं ?
- क्या उस तथाकथित ऊपर वाले के ऊपर बर्खास्तगी की कार्यवाही नहीं होनी चाहिये ? (ताकि आने वाले समय में ये नज़ीर बनें और वापस इसकी पुनरा:वृत्ति न हो सके)
- क्या पुलिस के चंद लोगों को बलि का बकरा बनाकर उन्हे बलि चढा देना कहाँ का इंसाफ है ? क्या ये एक उचित कार्यवाही का प्रमाण ? जो ऊपर वाले के आदेश का पालन कर रहे थे ?
- क्या ऊपर वाले के ऊपर कार्यवाही होगी ? क्या नज़ीर प्रस्तुत की जायेगी ? क्या न्यायालय को ही इस पर भी संज्ञान लेने की आवश्यकता है ?
- क्या देश के राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री इसपर संज्ञान लेकर कार्यवाही करेंगे ?
- या सुप्रीमकोर्ट या हाईकोर्ट ही संज्ञान लेकर कार्यवाही करने में सक्षम ?
- यदि सही मायने में नज़ीर प्रस्तुत करना है तो ऊपर वाले के ऊपर कार्यवाही तत्काल प्रभाव से करके प्रस्तुत करेंगे ?
येे सवाल सायद जनता के अधिकार क्षेत्र में न हो और जनता को सायद इसे पूंछने का अधिकार भी न हो ? क्योंकि ये देश के संवैधानिक पद की गरिमा के खिलाफ़ भी हो ? हो सकता है इससे किसी के विशेषाधिकार का हनन होता हो ? या अवमानना हो ? क्योंकि जनता को सिर्फ बस सिर्फ एक मात्र अधिकार है कि वो सिर्फ बस सिर्फ वोट दे सकती है ! उसके अलावा उसे कोई अधिकार नहीं है ? वोट देने के बाद सारे के सारे अधिकार उस सरकार के पास होते हैं जिसे वो वोट देकर चुनते हैं ? और वो सिर्फ बस सिर्फ जनता के लिये ही कानून बनाते हैं संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्ति विशेष के लिये या शासनिक/प्रशासनिक व्यक्ति के लिये नहीं ?
इसी लिये मेरा भारत महान है ?