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Friday, May 3, 2024

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क्या इन जुड़वां शैतानों के सिर जुदा होंगे? इस्राईल ने रेड लाइन पार कर दी है !

सौ. फाईल चित्र

रिपोर्ट – सज्जाद अली नयाने

न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट और इराक़ के बारे में इस्राईली प्रधानमंत्री की टिप्पणी, विशेषकर हश्दुश्शाबी के ठिकानों पर हुए हालिया हमले के बारे में और इराक़ के संबंध में अमेरिका की संवेदनशीलता को देखते हुए यह अनुमान लगाया जाने लगा है कि ट्रम्प और नेतनयाहू के बीच दूरी आ सकती है।

विदेश – इराक़ कई मायनों में अमेरिका के लिए महत्वपूर्ण है और विशेषकर अगर मध्यपूर्व में उसे अपने पैर जमाए रखने हैं तो वॉशिंग्टन के लिए ज़रूरी है कि बग़दाद को वह अपना स्ट्रेटेजिक क्षेत्र बनाए रखे। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका में आई आर्थिक समस्याओं और बड़े पैमाने पर जानी और माली नुक़सान के बावजूद वॉशिंग्टन इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ कि वह अपनी उपस्थिति को बग़दाद कम करे। लेकिन इस बीच कुछ ऐसी घटनाएं हुईं है कि इराक़ सरकार और इस देश की जनता अमेरिका के ख़िलाफ़ हो गई है और यह वह घटनाएं हैं जिसमें ज़ायोनी शासन ने इस देश के लोकप्रीय स्वयं सेवी बल हश्दुश्शाबी के सैन्य ठिकानों पर हमला किया है।

इस बीच अमेरिका के प्रसिद्ध समाचार पत्र न्यूयॉर्क टाइम्स ने अपनी एक रिपोर्ट में दो वरिष्ठ अमेरिकी अधिकारियों के हवाले से लिखा है कि, इस्राईली सेना ने पिछले कुछ सप्ताह के दौरान कई बार इराक़ के स्वयं सेवी बल हश्दुश्शाबी के सैन्य प्रतिष्ठानों और हथियार डिपो पर हमला किया जिसके कारण इन ठिकानों में आग लग गयी है। इस्राईली प्रधानमंत्री नेतनयाहू ने भी अपने एक भाषण में इन हमलों की पुष्टि करते हुए इस ओर इशारा भी किया है। इराक़ी स्वयं सेवी बलों के ठिकानों पर हुए हमले के बारे में अगर गहराई से जाएज़ा लें तो कई कारणों से इसमें स्वयं अमेरिका की ही हार मानी जाएगी। सबसे अहम वजह यह है कि ज़ायोनी शासन ने अमेरिका के समर्थन से ही इस तरह के हमले किए हैं और इसी कारण से इराक़ भी वॉशिंग्टन को ही इस स्थिति का ज़िम्मेदार बता रहा है।

अमेरिका और इस्राईल के संबंध पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में अपने निचले स्तर पर पहुंच गए थे, लेकिन ट्रम्प के व्हाइट हाउस पहुंचने के बाद एक बार फिर वॉशिंग्टन और तेलअवीव के बीच रिश्ते अच्छे हो गए। ट्रम्प ने अमेरिका के राष्ट्रपति बनने के बाद इस्राईल के लिए ऐसे काम किए कि जिसका उदाहरण अमेरिका और इस्राईल के आपसी संबंधों के इतिहास में नहीं मिलता है। ट्रम्प ने ज़ायोनी शासन के लिए जो काम किए हैं उसको इस प्रकार सूचीबद्ध किया जा सकता है, अतिग्रहित बैतुल मुक़द्दस और गोलान हाइट्स को इस्राईली के हवाले करने से लेकर तेलअवीव और फ़ार्स की खाड़ी के अरब देशों के बीच संबंधों को सामान्य करने तक, साथ ही फ़िलिस्तीन के मुद्दे को आर्थिक मुद्दे में बदलना, फ़िलिस्तीन के बुनियादी ढांचे का विनाश और ईरान पर अधिकतम दबाव, यह सब वह काम हैं जिसके लिए अमेरिका ने बहुत बड़ी क़ीमत भी चुकाई है।

अमेरिका द्वारा ज़ायोनी शासन के लिए किए गए कामों में वॉशिंग्टन को हर तरह की लागत लगाने के बावजूद केवल निराशा ही हाथ लगी है। उदाहरण के तौर पर अगर बात की जाए ईरान की तो यह जग ज़ाहिर है कि ट्रम्प द्वारा जेसीपीओए से निकलने के फ़ैसले में नेतनयाहू का बहुत अहम रोल था, लेकिन ट्रम्प के परमाणु समझौते से निकलने के कारण वॉशिंग्टन और उसके पुराने सहयोगियों के बीच दरार पैदा हो गई। इसके अलावा फ़िलिस्तीन के मामले में ट्रम्प द्वारा लिए गए निर्णयों से भी मुस्लिम देश भी वॉशिंग्टन से नाराज़ हो गए। इसलिए माना जा रहा है कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोन्लड ट्रम्प जो स्वयं को फ़ायदे का सौदा करने वाला समझते हैं उनके लिए यह असंभव है कि वह अमेरिका पर पड़ने वाले नए आर्थिक बोझ के सामने चुप्पी साध लें।

एक अमेरिकी अधिकारी ने न्यूयॉर्क टाइम्स को अपना नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर बताया कि, इराक़ पर हवाई हमले करके इस्राईल ने अपनी रेड लाइन पार कर ली है और इसकी वजह से यह संभावना बढ़ गई है कि अमेरिकी सैनिकों को इराक़ से निकाल दिया जाए। अमेरिकी अधिकारी के अनुसार, अगर यह सिद्ध हो जाता है कि इन हमलों को इस्राईल ने ही अंजाम दिया है तो तेलअवीव, वॉशिंग्टन की कड़ी प्रतिक्रिया के लिए तैयार रहे, लेकिन अगर व्हाइट हाउस, इस्राईल के इराक़ पर आक्रमण पर ख़ामोश रहा या तेलअवीव का समर्थन किया तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि फिर अमेरिका को इराक़ में अपने भविष्य के बारे में सोचना पड़ेगा और अगर वाशिंग्टन ने इराक़ का साथ दिया तो फिर उसे एक तरह से ज़ायोनी शासन के सामने खड़ा होना पड़ेगा। अमेरिकी अधिकारी के अनुसार पश्चिमी एशिया में अमेरिका की मज़बूत स्थिति के लिए सबसे अहम देश कोई है तो वह है इराक़ और पिछले तीस वर्षों में कथित तौर पर अमेरिका ने मध्यपूर्व में जो भी उपलब्धि प्राप्त की है उसमें इराक़ उसका स्ट्रेटेजिक केंद्र रहा है। इन सब चीज़ों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अमेरिका, इस्राईल द्वारा इराक़ पर किए गए हमलों को सहन कर सके।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ट्रम्प की नेतनयाहू से दोस्ती अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए अभी तक लाभ का सौदा नहीं रहा है। अमेरिका में सक्रिय यहूदी लॉबी के वोटरों को भी ट्रम्प इस दोस्ती के कारण अपनी ओर आकर्षित नहीं कर पाए हैं, बल्कि पिछले सप्ताह से ट्रम्प प्रशासन को अमेरिका में रहने वाले यहूदियों की नई चुनौतियों का सामना करना पड़ा रहा है। ट्रम्प और अमेरिकी यहूदियों के बीच इतना ज़्यादा टकराव बढ़ गया है कि यह सुनिश्चित माना जा रहा है कि 2020 में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में, अमेरिका में रहने वाले यहूदियों की सबसे शक्तिशाली लॉबी आईपेक भी उनका समर्थन न करे। हो सकता है कि ट्रम्प ने अपने राष्ट्रपति कार्यकाल में अमेरिका की आंतरिक और आर्थिक नीति में कुछ सफलता प्राप्त की हो लेकिन विदेश नीति में वे पूरी तरह विफल रहे हैं। उनके राष्ट्रपति कार्यकाल में अमेरिका, ईरान के परमाणु समझौते को लेकर अपने पुराने सहयोगियों के साथ आमने-सामने खड़ा है, चीन के साथ आर्थिक युद्ध का आरंभ होना, पड़ोसी देशों के साथ आप्रवासियों को लेकर टकराव और इसी तरह मध्यपूर्व में उखड़ते उसके पांव यह सब ट्रम्प की विदेश नीति की विफलता के उदाहरण हैं।

अंत में इन सब पहलुओं पर नज़र डाली जाए तो यह कहा जा सकता है कि ट्रम्प 2020 के राष्ट्रपति पद के लिए होने वाले चुनाव में अपनी जीत को सुनिश्चित बनाने के लिए एक आत्मघाती कार्यवाही कर सकते हैं और वॉशिंग्टन-तेलअवीव संबंधों में कोई बड़ा बदलाव ला सकते हैं। हलांकि इस बीच हमे इस्राईल में होने वाले आगामी चुनाव को नहीं भूलना चाहिए, क्योंकि हो सकता है कि ज़ायोनी शासन के अगले चुनाव में नेतनयाहू सत्ता खो दें। इसलिए कहा जा सकता है कि किसी भी हालत में हालिया स्थिति न वॉशिंग्टन के लिए और न ही इस्राईल के लिए अच्छी है, क्योंकि तेलअवीव चाहे नेतनयाहू के साथ और चाहे बिना उनके उसे अपने सबसे बड़े सर्मथक अमेरिका के समर्थन की आवश्यकता है और इसीलिए वह मजबूर है कि वह अपने आक़ा अमेरिका की रेड लाइन का सम्मान करे। मध्यपूर्व में इराक़ और इस देश में अमेरिका की उपस्थिति वॉशिंग्टन के लिए रेड लाइन है जिसको किसी को भी पार नहीं करना चाहिए।

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