पिछले हफ़्ते शनिवार से मंगलवार तक के कुछ दिन सऊदी अरब के किंग शाह सलमान के लिए निःसंदेह सबसे बुरे दिन रहे होंगे।
अमरीकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प ने इन चार दिनों में कई बार किंग सलमान का न केवल अपमान किया, बल्कि उनके सत्ता में बने रहने पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया।
सऊदी किंग सलमान ने अपनी और अपने बेटे एवं उत्तराधिकारी मोहम्मद बिन सलमान की पकड़ सत्ता पर मज़बूत करने के लिए अपने किसी भी पूर्ववर्ती शासक से अधिक अमरीका का सहारा लिया।
सऊदी किंग और युवराज ने अपने आंतरिक विरोधियों को दबाने और इलाक़े में धौंस जमाने के लिए अमरीका को अपना रणनीतिक सहयोगी बताना शुरू कर दिया था। यहां तक कि जब ट्रम्प ने सऊदी अरब को दूध देने वाली गाय बताया था तो भी सऊदी किंग ने इसे नज़र अंदाज़ करके इसे केवल चुनावी स्टंट का नाम दिया था।
उस समय ट्रम्प ने कहा था कि सऊदी अरब एक दूध देने वाली गाय है, जब तक वह दूध दे रही है सही है और जब दूध देना बंद कर दे तो उसे बूचड़ख़ाने के हवाले कर देना चाहिए।
सऊदी शासन के बारे में ट्रम्प के ताज़ा बयानों को देखकर क्या ऐसा लगता है कि इस गाय को बूचड़ख़ाने के हवाले करने का समय आ गया है? ताज़ा परिस्थितियों से तो ऐसा लगता है कि ट्रम्प किंग सलमान का खेल समाप्त करना चाहते हैं।
ट्रम्प का कहना है कि वाशिंगटन के समर्थन के बिना, किंग सलमान दो हफ़्ते से ज़्यादा सत्ता में बाक़ी नहीं रह पायेंगे। इस बयान के कुछ ही दिन बाद फिर ट्रम्प ने कहा, सऊदी किंग के पास खरबों डॉलर हैं और अमरीका उन्हें सुरक्षा प्रदान कर रहा है।
ट्रम्प को अब ऐसा भूखा भेड़िया कहा जा रहा है जो ख़ुद अपने ही हाथ पैर खाने लगता है।
वास्तव में ईरानी तेल पर अमरीकी प्रतिबंधो के बाद, विश्व में तेल की आपूर्ति में कमी न होने देने और तेल की क़ीमतों को निंयत्रित में रखने के लिए अमरीकी राष्ट्रपति ने सऊदी अरब पर तेल निर्यात में वृद्धि करने के लिए दबाव बनाया था।
यह ऐसी स्थिति में है कि सऊदी अरब अपनी क्षमता का भरपूर इस्तेमाल करते हुए तेल उत्पादन और निर्यात कर रहा है, इसलिए उसने तुरंत ट्रम्प की मांग का सकारात्मक जवाब देने में असमर्थता जताई।
दूसरी ओर अमरीका, विश्व में डॉलर की गिरती हुई साख को लेकर भी परेशान है, हालांकि अमरीकी सरकार दूसरे कई देशों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाकर ख़ुद ही इस तरह की परिस्थितियों को जन्म देने के लिए ज़िम्मेदार है।
अमरीका की दबंगई के कारण ही, चीन, रूस, वेनेज़ुएला, तुर्की और ईरान जैसे देशों ने डॉलर से मुक्ति पाने और इसका कोई रणनीतिक समाधान खोजने की पहल की है। अब इस कड़ी में अमरीका के पारम्परिक घटक माने जाने वाले यूरोपीय देश भी जुड़ते नज़र आ रहे हैं।