रिपोर्ट – सज्जाद अली नायाणी
चीन ने ईरान से तेल ख़रीदने को लेकर अमरीका द्वारा चीनी कंपनियों पर लगाए गए प्रतिबंधों को अमरीका की ग़ुंडागर्दी क़रार दिया है।
चीन के विदेश मंत्रालय ने गुरुवार को एक बयान जारी करके कहा, हम हमेशा से ही दूसरे देशों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप और एकपक्षीय प्रतिबंधों का विरोध करते रहे हैं।
बयान में कहा गया है कि ईरान के साथ चीन का सहयोग क़ानूनी है और इसका सम्मान किया जाना चाहिए, हम अमरीका से अनुरोध करते हैं कि वह अपनी इस ग़लती को सुधार ले।
वहीं अमरीकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने धमकी देते हुए कहा, हम चीन और दूसरे देशों को यह चेतावनी दे रहे हैं कि हम उस देश पर प्रतिबंध लगा देंगे जो प्रतिबंधों का उल्लंघन करेगा।
अमरीका और चीन के बीच बड़ा भू-राजनीतिक टकराव चल रहा है, ऐसे में तेहरान को अलग-थलग करने के वाशिंगटन के एजेंडे में शामिल होना बीजिंग के हित में नहीं है।
चीन अपने राष्ट्रीय हितों के मुक़ाबले में अमरीकी प्रतिबंधों को कोई महत्व नहीं देता है और वह खुलेआम ईरान से तेल और अन्य वस्तुएं आयात कर रहा है।
रॉबर्ट कपलान ने हाल ही में न्यूयॉर्क टाइम्स में लिखा थाः चीन के लिए ईरान का महत्व यूरेशिया के महत्व से कम नहीं है।
इसमें कोई शक नहीं है कि मध्यपूर्व में ईरान, चीन का सबसे महत्वपूर्ण और विश्वसनीय भागीदार है। ईरान प्राकृतिक संसाधनों और मानव पूंजी में पहला देश है जिसे एक अनछुआ विशाल बाज़ार भी कह सकते हैं। इसके अलावा वैश्विक राजनीति के स्तर पर ईरान एक बड़ा खिलाड़ी भी है।
अब अगर हम चीन की नज़र से देखें तो हमें ऐसा कोई कारण नज़र नहीं आता, जिसकी वजह से बीजिंग ईरान के ख़िलाफ़ अमरीका के अधिकतम दबाव के अभियान को सफल बनाने में अपनी भूमिका अदा करे।
सन् 2000 की शुरूआत से ही चीन, ईरान का प्रमुख व्यापारिक साझेदार और तेल ग्राहक बन गया। चीनी योजनाकारों ने एशिया से यूरोप को जोड़ने की बेल्ट एंड रोड परियोजना में ईरान को सबसे अहम कड़ी के रूप में रेखांकित किया है। वहीं अमरीका के ख़िलाफ़ भूरणनीतिक संतुलन बनाए रखने के लिए चीन, ईरान के लिए एक महत्वपूर्ण सहयोगी है।
ईरान के वरिष्ठ नेता कई बार देश की सरकार को गाइडलाइन देते रहे हैं कि यूरोप जब तक अमरीका के दबाव में है कभी भी विश्वसनीय भागीदार नहीं बन सकता, इसके बजाए तेहरान को एशियाई देशों से सहयोग बढ़ाना चाहिए।
ईरान-चीन सहयोग की सही रूपरेखा जनवरी 2016 में शी जिनपिंग की तेहरान यात्रा के दौरान तैयार हुई। दोनों देश अगले 10 वर्षों में व्यापार को 600 अरब डॉलर तक ले जाने के लिए सहमत हुए। इसी के साथ दोनों देशों ने 25 वर्षीय मज़बूत सहयोग की बुनियाद रखी। चीन की क़रीब 100 बड़ी कंपनियां ईरान के ऊर्जा और ट्रांस्पोर्ट जैसे सेक्टरों में निवेश कर रही हैं।
चीनी सरकार ने अपने देश की कंपनियों को 10 अरब डॉलर का लोन दिया है, ताकि वह मशहद से बूशहर को रेलवे से जोड़ने वाली परियोजना और इस जैसी अन्य परियोजनाओं में निवेश कर सकें।
केवल इतना ही नहीं, बल्कि चीन ओमान खाड़ी में स्थित चाबहार बंदरगाह के विकास को गति प्रदान करने में भी सहोयग करना चाहता है। यह परियोजना भारत के साथ सहयोग बढ़ाने के लिए उसे सैंपी गई थी। लेकिन चाबहार परियोजना को अमरीकी प्रतिबंधों से छूट हासिल होने के बावजूद भारत ने 2017 के बाद से चाबहार के लिए आवंटित बजट में से कुछ ख़र्च नहीं किया। भारत सरकार ने हर साल क़रीब 2 करोड़ डालर इस परियोजना पर ख़र्च के लिए आवंटित किए थे, जो इसी साल प्रधान मंत्री के दोबारा सरकार बनाने के बाद घटकर केवल 60 लाख डॉलर तक रह गए।
इन आंकड़ों से पता चलता है कि 2018 में ट्रम्प के परमाणु समझौते से निकलने और ईरान पर फिर से प्रतिबंध लागू करने से पहले से ही भारत की महत्वाकांक्षी चाबहार योजना में रूची कम हो गई थी।
हालांकि भारतीय प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने दूसरे कार्यकाल में क्षेत्रीय कनेक्टिविटी को अपनी सरकार की विदेश नीति की प्राथमिकता घोषित किया है, ताकि भारत पूरब और पश्चिम के अपने सहयोगियों के साथ व्यापार को गति प्रदान कर सके।
निश्चित रूप से भारत, चीन की महत्वाकांक्षी वैश्विक परियोजना बेल्ट एंड रोड से चिंतित है, जिसका वह विरोध कर रहा है।
भारत को पश्चिम और मध्य एशिया से जोड़ने वाली प्रमुख कड़ी ईरान है, चाबहार बंदरगाह भी इसीलिए भारत के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन जिस तरह से चीन ईरान के साथ अपने व्यापारिक संबंधों की रक्षा कर रहा है, भारत में उस साहस की कमी साफ़ दिखाई पड़ती है।
भारत में सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी की दक्षिणपंथी विचारधारा की भी किसी हद तक इसमें भूमिका है। 2014 में मोदी के नेतृत्व में बीजेपी द्वारा सरकार गठन के बाद से ही भारत की विदेश नीति का झुकाव ईरान के सबसे बड़े दुश्मन इस्राईल और अमरीका की ओर अधिक रहा है। हालांकि इस दौरान नई दिल्ली ने तेहरान, तेल-अवीव और वाशिंगटन के बीच अपने रिश्तों में संतुलन बनाने का भी प्रयास किया है। लेकिन संतुलन बनाने के प्रयास में भारत कब अमरीकी दबाव के सामने झुकता गया और उसने क्षेत्र में अपने राष्ट्रीय हितों से समझौता कब कर लिया, इसका भारतीयों को एहसास नहीं हुआ।
अब जब ईरान पर अमरीका की अधिकतम दबाव की नीत क़रीब अपने अंत को पहुंच रही है और दोनों ही देश भविष्य में किसी समाधान की आशा कर रहे हैं, निश्चित रूप से ईरान के विशाल ऊर्जा क्षेत्र में निवेश के लिए भारतीय कंपनियां चीनी कंपनियों के सामने कहीं ठहरती नज़र नहीं आयेंगी। ईरान भी यह घोषणा कर चुका है कि जो देश मुश्किल हालात में उसके साथ खड़े रहे हैं वह उन्हें अपना विश्वसनीय दोस्त मानता है।
इसलिए भारत जो अपने पड़ोसी देश चीन से प्रतिस्पर्धा करने का इरादा रखता है, अपने पड़ोसी सहयोगियों को चीन के हाथों खो देने के बाद मध्यपूर्व और विश्व में हारे हुए घोड़ों पर बाज़ी लगा रहा है।