9 अक्तूबर को बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि विवाद पर भारतीय सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर देश के अधिकांश मुसलमानों और क़ानून विशेषज्ञों का कहना है कि बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद का निपटारा किया गया है, लेकिन इंसाफ़ नहीं किया गया।
सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस अशोक कुमार गांगुली ने सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले पर सवाल उठाते हुए कहा है कि संविधान के एक स्टूडेंट के तौर पर मुझे इस फ़ैसले को स्वीकार करने में दिक़्क़त हो रही है।
उन्होंने इस मुक़दमे की सुनवाई करने वाले पांच जजों की संवैधानिक बैंच द्वारा मुस्लिम पक्ष की सभी दलीलों को स्वीकार करने के बावजूद माइथोलॉजिकल ‘तथ्यों’ के आधार फ़ैसला सुनाए जाने पर आश्चर्य व्यक्त किया है।
जस्टिस गांगुली का कहना थाः संविधान के अस्तित्व में आने से पहले वहां क्या था इसे तय करना सुप्रीम कोर्ट की ज़िम्मेदारी नहीं है। इसलिए कि उस समय भारत कोई लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं था। हम माइथोलॉजिकल तथ्यों के आधार पर आगे नहीं बढ़ सकते।
इस मामले पर फ़ैसला देते हुए शीर्ष अदालत की संवैधानिक पीठ ने कहा कि मुस्लिम पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि 1528 से 1857 तक मस्जिद में नमाज़ अदा की जाती थी और इस पर उनका विशिष्ट अधिकार था। हालांकि हिंदू पक्ष भी यह साबित नहीं कर सका कि 1528 में मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी, या जिस ज़मीन पर मस्जिद बनी हुई थी वही राम जन्म भूमि है और वहां हिंदू पूजा करते रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद ज़मीन का मालिकाना हक़ उन्हें दे दिया गया है।
1045 पन्नों पर आधारित इस फ़ैसले के पैराग्राफ़ 786, 797 और 798 में फ़ैसले का सार है।
पैराग्राफ़ 786 में कहा गया है कि मुस्लिम पक्ष का दावा है कि 1528 में मस्जिद का निर्माण बाबर द्वारा या उनके कहने पर करवाया गया था, लेकिन इसके बनने के बाद से 1856-7 तक उन्हें इस पर क़ब्ज़े, इस्तेमाल या नमाज़ अदा किए जाने के बारे में कोई जानकारी नहीं है।
मुसलमानों द्वारा इसके निर्माण से लेकर ब्रिटिश राज्य द्वारा ईंट-ग्रिल की दीवार बनाने तक के 325 वर्षों की अवधि से ज़्यादा तक विवादित स्थल पर अधिकार होने के प्रमाण पेश नहीं किए गए हैं। न ही इस दौरान मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का ही कोई प्रमाण मौजूद है…
पैराग्राफ़ 797, संभावनाओं के संतुलन के आधार पर इस बात के स्पष्ट प्रमाण दिखते हैं कि 1857 में अंग्रेज़ों द्वारा यहां ग्रिल और ईंट की दीवार बनवाने के बावजूद बाहरी प्रांगण में निर्बाध रूप से हिंदुओं द्वारा पूजा की जाती थी।
पैराग्राफ़ 798, जहां तक भीतरी प्रांगण की बात है, तो यह बात साबित करने के काफ़ी सबूत हैं कि 1857 से पहले वहां हिंदुओं द्वारा पूजा की जाती थी। हालांकि मुसलमानों के पास यह साबित करने के लिए कि 16वीं शताब्दी में मस्जिद के निर्माण के बाद से 1857 तक भीतरी अहाते पर उनका विशिष्ट अधिकार था, कोई सुबूत नहीं है। ग्रिल और ईंट की दीवार बनने के बाद मस्जिद का ढांचा यहां मौजूद रहा और इस बात के प्रमाण हैं कि इसके अहाते में नमाज़ अदा की जाती थी।
दिलचस्प बात है कि आगे इसी पैराग्राफ़ में कोर्ट ने अपनी बात को ग़लत साबित करते हुए कहाः मुसलमानों से इबादत और क़ब्ज़े का यह अधिकार 22/23 नवंबर 1949 की दरम्यानी रात में तब छीना गया जब हिंदू मूर्तियों को रखकर उसे अपवित्र कर दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कलीसवरम राज ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले की आलोचना करते हुए कहा है कि इस फ़ैसले से यह साबित हो गया है कि ”भारत कट्टर दक्षिणपंथी व्यवस्था की ओर बढ़ रहा है। यह फ़ैसला संविधान के सिद्धांतों के लिए झटका है। यह क़ानून के राज और सेक्युलर व्यवस्था से मेल नहीं खाता है।
उन्होंने कहाः इस फ़ैसले में सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि कोर्ट ने बाबरी मस्जिद तोड़ने की कार्यवाही को अवैध और ग़ैरक़ानूनी माना है और फिर उसी को सम्मानित करने की कोशिश की गई। यह फ़ैसला संविधान के मानकों के हिसाब से विरोधाभासी है।
कलीसवरम राज कहा कि इस फ़ैसले की चर्चा थमेगी नहीं और इतिहास में इसे विरोधाभासों के रूप में जाना जाएगा। लोग पूछेंगे कि कैसे एक फ़ैसला क़ानून तोड़ने वालों के पक्ष में और पीड़ितों के ख़िलाफ़ चला गया? कोर्ट ने कहा कि बाबरी विध्वंस अवैध था। इसका समाधान यह निकाला गया कि जहां मस्जिद थी वहां मंदिर बना दो।
आने वाला वक़्त कभी इस नाइंसाफ़ी के लिए भारत में इंसाफ़ के सबसे बड़े मंदिर को माफ़ नहीं करेगा।
साभार पार्सटूडे