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जीते न दिया कौरा (निवाला) , मरते बिठाया चौरा (चबूतरा) (शोक सभा ) ।
वाह रे वाह मेरे सरकार ! …….वोट के लिये कुछ भी करेगा !
ये देश की राजनीति की बिडम्बना ही है कि सत्ता के लिये वोटों का महत्व उतना ही है जितना किसी इंजन को स्टार्ट करने के लिये फायर की जरूरत , जितना किसी मोटर को स्टार्ट करने के लिये कैप्सीटर की जरूत , लेकिन सबसे सटीक उपमा यदि दी जा सकती है तो ये कि जिस तरह किसी गाड़ी को चलाने में गियर डालते वक्त क्लच की जरूरत पड़ती है , वहीं वोट यानी जनता जनार्दन की भी सिर्फ उतने ही समय तक जरूरत महशूस की जाती है।
लेकिन अब आप ये सोच में होंगे कि इससे अटल जी का क्या वास्ता ? वास्ता है , ये वो एक ऐसा अटल सत्य है , जिसे पचापाना किसी के बस की बात नही है । अटल उस शख्सियत का नाम था, जिनके विरोधी तो थे , लेकिन दुश्मन कोई नहीं था , उनके या उनके विरोधियों के विचार तो भिन्न थे, लेकिन इरादा एक ही था , कि देश रहना चाहिये , लोकतन्त्र बना रहना चाहिये , देश से बढ़कर वो कुछ नहीं चाहते थे।
वो देश के ऐसे नेता थे जो राजनीति तो करते थे लेकिन राज करने के लिये नहीं , जब वो पहली बार 13 दिन के लिये प्रधानमंत्री बने , और संख्या बल के आगे नतमस्तक तो हुये , लेकिन उन्होने सदन में पिछली सरकार के उपलब्धियों को नही नकारा , उन्होंन गर्व से कहा कि मैं चाहता तो पिछली सरकार की खामियों को गिनाने के लिये मेरे पास भरपूर सामग्री थी , लेकिन वो ठीक विकल्प नहीं था कि पचास वर्षों की उपलब्धि को अपने स्वार्थ के लिये झुठला देता , ये देश , जनता , किसान और अन्यों के लिये हितकर नहीं होता , ये उनके साथ धोखा होता । और हसते-हसते अपने पद से इस्तीफा दे दिया । वो विरोधियों को फटकार लगाने से भी नही चूकते थे , सदन में उन्होने कहाँ कि ये पद उन्हें चालिस वर्षों की तपस्या के बाद प्राप्त हुआ है , दो चार वर्षों की राजनीति से नहीं ।
लेकिन आज गुरूर में चूर देश के स्वयं भू वैश्विक नेता, अटल जी के बिलकुल विपरीत कार्यशैली को क्रियान्वित करने में चतुर , और सत्ता सुख के लिये सदैव आतुर , वरिष्ठों को दरकिनार कर जेष्ठ बनने की लोलुपता के चलते , कुछ भी करेगा की नीति को अग्रेसित करते हुये , भले ही जनता या देश के लिये हितकर हो या न हो ऐसे कार्यों को जबरन थोपने का काम करते हुये , उस नीति को लागू करवाने पे अमादा रहते हैं। और दूसरी सरकारों के योजनाओं का नाम पर्वरतित कर वाह वाही लूटने में माहिर नेता, जिसकी सायद ही कोई एक योजना हो जो स्वतः के सरकार की हो और जो सफल हुई हो । इस सरकार के दौरान सिर्फ एक ही कार्य जारों पर हुआ है , वो स्थलो , रोडों , योजनाओं इत्यादि के नाम का परिवर्तन करने के काम का ।
वहीं सत्ता की लोलुप्ता ने इस कदर घर किया कि 2014 के आम चुनाव से पूर्व सत्ता पर काबिज होने लिये , कुछ एक नेता जो वर्तमान में शीर्ष के नेताओं में सुमार रखते हैं , उन्होने सिर्फ सत्ता बस सत्ता पाने की चाहत में अपना सब कुछ समर्पण कर , ऐसे नेता को शीर्ष पर बिठाने पर तुल गये , जो ऐसी शख्सियतों में सुमार करता था जो ‘ऐन केन प्रकारेण’ जीत दिला सकता था, जिसे ऐसे कार्यों में निपुणता हासिल थी , जिसे घनबल जुटाने में महारत हासिल थी या मानों जुटा सकता था , उसे उस चुनाव की बागडोर थमा दी गई । जिसने बागडोर हाथ में आते ही उन कद्दावर नेताओं को सबसे पहले साइड लाईन किया , जो उसकी राह में रोड़ा बन सकते थे । और धीरे-धीरे चुनाव में आंधी से तूफान और तूफान से सुनामी में पर्वरतित कर दिया ।
और अटल तिकड़ी (अटल , आडवानी , जोशी) को बैनरों और पोस्टरों से लपतागंज भेज दिया , 2014 में औरा इतना प्रबल था कि उसके सामने कुछ भी नहीं टिक पा रहा था , लेकिन जिन थोथे वादों को किया गया वो थोथे के थोथे ही निकले , अटल की भावभंगिमाओं की नकल कर लेने मात्र से कोई अटल नहीं बन सकता , ये अटल सत्य ही है। कि अटल कोई दो चार वर्षों की राजनीति से अटल नहीं बन जाता , अटल बनने के लिये अटल प्रयास करने पड़ते अटल तपस्या करनी पड़ती है अटल इरादे करने पड़ते है और अटल की तरह देश के प्रति ईमानदार , कर्तब्यनिष्ठ , नीतिपरायण , वफादार , लोकतन्त्र का हितैषी बनना पड़ता है , अटल वाणी – छोटे दिल से कोई बड़ा नहीं होता , और थोथे इरादों से कोई खड़ा नही होता। यदि अटल जी से ये सभी इतने ही प्रभावित थे तो उनके इरादों को तार-तार नहीं किया गया होता , जब उन्होने राजनीत से संन्यास लिया था तब उन्होंने अपने इरादे साफ-साफ स्पष्ट कर दिये थे कि न तो मैं टायर्ड हूँ न मैं रिटायर्ड हूँ , पार्टी अगला चुनाव आडवानी जी के नेतृत्व में लड़ेगी और मैं उन्हे प्रधानमंत्री देखना चाहता हूँ।
2014 का औरा 2018 आते – आते काफुर हो गया
जब विगत माह पूर्व देश का गौरव भारत रत्न पत्रकार कवि हृदय पूर्व प्रधानमंत्री स्व.अटल बिहारी बाजपेयी जी की हालत नाजुक हुई और वो एम्स में भर्ती हुये तो सर्वप्रथम जो उन्हे देखने पहुँचा तो वो विपक्षी नेता कॉंग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी थे , जब मीडिया के माध्यम से ये चर्चा आम हुई तो आनन-फानन में उसके बाद बीजेपी के नेता उन्हें देखने पहुँचे , उससे पहले तो सायद ही कोई बीजेपी का नेता होगा जो उनके हालचाल लेने पहुँचता होगा , जो पहुँचता भी होगा वो बिहारी जी से जुड़ा व्यक्ति ही होगा जो उनसे व्यक्तिगत लगाव रखता होगा। अन्यथा 2009 से उन्हे भुलाने का प्रयास नहीं किया जाता , उन्हे तो सिर्फ जनता की सिम्पेथी पाने मात्र के लिये ही प्रयोग किया गया ।
अन्यथा पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करूणा शुक्ला ने भाजपा के अटल प्रेम को इस तरह बयां नही किया होता कि अटल जी ने अपने पूरे जीवन में ये नही सोचा था कि चंद स्वार्थी और मौक़ापरस्त लोगों की राजनीत उनकी मौत और अस्थियों का भी तमाशा बनायेगी। उन्होने ये आरोप भी लगाया कि जीतेजी 2014 से अब तक उन्हे बैनरों और पोस्टरों पर जगह नही देने वाले , उनकी मौत के बाद चुनावों के लिये तमाशा बना रहे हैं ।
क्या ये वाक्य चरितार्थ नहीं हो रहा है ? कि –
जीते न दिया कौरा (निवाला) , मरते बिठाया चौरा (चबूतरा) (शोक सभा ) ।
यदि बिहारी जी की भतीजी ने जो प्रश्न चिन्ह खड़ा किया है , क्या इसका जवाब बीजेपी के चैनल चमकू नेता देगें ? या इसे विरोधियों की साजिस बताया जायेगा , या इसका भी जवाब काँग्रेस के अघ्यक्ष राहुल गाँधी या सोनिया गाँधी को देना चाहिये ? क्या ये दिवंगत आत्मा के साथ मजाक नही हो रहा है ?
या फिर …… वोट के लिये … कुछ भी करेगा ….
2022 का दम भरने वाले 2019 से पहले ही टॉय-टॉय फिस हो गये ? औरा काम नहीं आ रहा या विपक्षी रणनीति के आगे ढेर हो गया औरा , या फिर जीत का फार्मूला जगजाहिर हो गया है ?