– रवि जी. निगम
आपकी अभिव्याक्ति
विड्म्बना देखिये न्यू इण्डिया की नयी तस्वीर, आज देश के भीतर जो भी घटित हो रहा है वो देश की आजादी के सत्तर सालों में जो कोई नहीं कर पाया कई सरकारें आई और गयीं सायद ही इतनी इच्छा शक्ति उनमें भी नहीं रही होगी कि इस तरह की तस्वीर पेश कर पातीं… लेकिन इसे राजनीतिक मजबूत इच्छा शक्ति और दृडसंकल्प ही कहिये जो देश को नई ऊंचाईयों तक ले जाने की अडिग कोशिस और अथक प्रयासों का ही नतीजा है जो देश इतनी बलंदियों तक जा पहुंचा और वैश्विक स्तर पर अपनी पताका फैरा रहा है…!!
सायद ही कभी भी किसी ने सोचा होगा कि हम पंच ट्रिलियन का सपना भी देख सकेंगे लेकिन वो सपना भी साकार हो सका वो भी सत्तर सालों के बाद ! ये देश के मजबूत नेतृत्व के बदौलत अन्यथा हम इससे भी महरूम हो जाते, आज हम सीना तानकर बॉर्डर पर यदि खडें हैं और एक-एक इंच धरती जो सुरक्षित है वो भी इसी कुशल और कर्मठ नेतृत्व की बदौलत, सत्तर सालों से संकुचित सोच के नेतृत्व ने नोटबंदी, कालाधन, जीएसटी जैसे मामलों को छूने तक का प्रयास नहीं किया, विरोधी चिल्लाते रह गये लेकिन देश के कुशल नेतृत्व ने सहजता और संयमता तथा कुशलता के साथ उसे क्रियांवित करके दिखा दिया!
कहते हैं ना ‘सत्ता के लिये…..कुछ भी करेगा’…!!!
अब सवाल उठा है तो उसका जवाब भी देना ही होगा क्योंकि ‘ये तो पब्लिक है सब जानती है’ दरअसल मामला तो कुछ यूं है कि जिस तत्पर्ता से आज राजनीतिक विसाद बिछाई जा रही हैं उसका तो मक़सद आईने की तरह बिलकुल साफ है कि विकास और विस्तार की दुहाई देने वाले खुद ही विकास से ज्यादा विस्तार की नीतियों में पूरी तनमयता के साथ जुटे हुए हैं उनका तो बस एक सूत्री कार्यक्रम है कि ‘ऐसे नहीं तो वैसे ही सही’ सत्ता तो हमें चाहिये!
खैर छोडिये ‘तू इधर उधर की न बात कर, तू तो ये बता कोरोना से कारवां क्यों लुटा ?‘
हम पांच ट्रिलियन का सपना ही देखते रहे और हमें पता ही तक नहीं चला हम पांच किलो के लिये लाईन में कब लग गये ? और किसने तथा कैसे लगा दिया ये भी हमें पता तक ही नहीं चला ? जब हम लगभग पांच सौ से हजार के भीतर थे तो हमें लॉकडाऊन का पाठ पढाया गया, इतना ही नहीं ये तक बताया गया की पडोसी भिखारी देश अपनी जनता की खैरियत तक नहीं पूछ रही कि वो कोरोना से कैसे बचेंगे, वहीं सरकार की आवाज बन देश के नंबर वन चाटुकार पेड प्रवक्ता दिन-रात यही डुगडुगी बजाते रहे, और जनता का ध्यान भटकाते रहे, कभी शंख-मंजीरा बजवाते रहे कभी दिया-बत्ती, मोमबत्ती जलवाते रहे, उनका सरोकार जनता से कम जनार्दन से ज्यादा रहा, आज स्थिति ये है कि सरकार ने हमें आत्मनिर्भर बना कर देश को अनलॉक करना प्रारम्भ कर दिया।
आज भी नंबर वन हैं….
देश आज एक विषम परिस्थियों से गुजर रहा है जनता कोरोना से कराह रही है लेकिन चाटुकार सिर्फ अपनी चमकाने में लगे हैं क्योंकि जनता के दुख:दर्द से उन्हे कोई सरोकार नहीं, बहरी और अंधी सरकार तक आवाज पहुंचाने के बजाय सरकार की चाटुकारिता में ही लगकर उसकी वाह!वाही में लगी नज़र आती है, कभी सरकार से ये सवाल तक नहीं पूंछा कि जब हम महज़ सैकडे में थे तो बडी-बडी बातें सरकार और उनके प्रवक्ता करते नहीं थकते थे, हम 18 दिनों में महाभारत का युद्ध जीत सकते हैं तो 21 दिन में कोरोना को हराकर मानेंगे, लेकिन आज साढे पांच महीने से ज्यादा बीत गये, देश की जीडीपी -23.9% के स्तर पर जा पहुंची, असंगठित क्षेत्र की कमर तक टूट गयी, आज प्रतिदिन 90 हज़ार से ज्यादा मामले सामने आ रहे हैं. प्रतिदिन औसतन नौ सौ से एक हज़ार व उससे भी ज्यादा मौंते हो रही है उस पर कोई चर्चा करने तक को तैयार नहीं है।
बस इन दिनों जो चर्चा का विषय होता है वो या तो भारत चीन विवाद पर या फिर बॉलीवुड की एक मर्डर मिस्ट्री पर या फिर ‘एक व्यक्ति विशेष’ के माध्यम से सत्ता की कुंजी पाने के लिये हो रही नूरा कुस्ती पर, जिसके लिये चाटुकार पूरी तरह सक्रीय हैं, यहाँ भी एक अजब तमाशा जारी है, एक की अस्मत की दुहाई तो दूसरे की अस्मत को तार-तार करने में लगे हैं, एक के घर के उजडने की दुहाई तो दूसरे के घर को उजाडने में लगे हुए हैं क्योंकि माल का सवाल है ‘पैसा खतम तो तमाशा हजम’, जनता के मुद्दे उठाकर क्या मिलेगा, विज्ञापन के टोटे अन्यथा जनता को दिखाओ सरकार के अश्वशन खोट, तभी मिलेंगे विज्ञापन मोटे-मोटे, क्योंकि कोरोना काल में कुछ खाश लोगों की ही तरक्की की खबर आयी है वरना हर तरफ मन्दी ही मंदी छाई है।
मुम्बई को कोरोना से सुरक्षा मुहैया कराने में तत्पर्ता दिखाई होती तो क्या ? होता..!!
इस समय एक सवाल बहुत अहम है कि काश! ‘एक व्यक्ति विशेष’ के लिये गृहमंत्रालय की तरफ से विशेष सुरक्षा मुहैया कराना कितना वाज़िब है ? ये सायद सभी के जहन में जरूर गूंज रहा होगा, काश! यही तन्मयता मुम्बई को लेकर उस वक्त दिखाई गयी होती जब कोरोना के मामले सैकडे में थे, जब मामला शुरूवाती था तो क्या देश की आर्थिक राजधानी मुम्बई की कमर टूटने से बचाया नहीं जा सकता था ? क्या मुम्बई को विस्तारवाद की वली नहीं चढा दिया गया ? और क्या उसी का खेल जारी नहीं है ? क्या सत्ता की लोलुपता इतनी चरम पर जा पहुंची है कि उसके आगे कुछ भी दिखाई देना तक बंद हो चुका है ?
आज देश कोरोना की जिस भयावह स्थिति से गुज़र रहा है या अग्रसर है वो किसी से छुपा नहीं है कहीं आकडों का खेल तो कहीं नोटों का रेलमपेल, हर कोई अपने-अपने नफा नुक्सान के मुताबिक लगा हुआ है।
लेकिन सवाल तो ये उठता है कि आखिर मामला इतना बिगडा तो बिगडा कैसे ?
यदि समय रहते इस पर गौर किया गया होता और पडोसी देश को लेकर अपनी पीठ ना थपथपाई गयी होती उसकी भिखारी देश से तुलना करने में समय ना गंवाया गया होता तो आज हमारी इतनी दुर्गति नहीं हुई होती, जब सरकार से आग्रह किया गया था कि प्रवासी मजदूरों को मुम्बई व अन्य राज्यों से जहाँ वो काम के शिलशिले से गये हुए हैं वहाँ से उन्हे जल्द से जल्द उनके गृह जनपद पहुंचा दिया जाये नहीं तो अन्यथा इसके परिणाम बहुत ही भयावह होंगे, लेकिन सरकार तो सरकार ठहरी वो क्यों किसी अदना से नागरिक की बात पर गौर करे, लेकिन जब हालात बद से बद्तर होने लगे तो ना सलाहकार, ना सिपेशलार काम आये और फिर इसी अदना के सुझाव ही काम आये, यदि जब यही सुझाव कारगर था तो तत्काल प्रभाव से इसे लागू क्यों नहीं किया गया ? जब सझाव लॉकडाऊन के पांचवें दिन ही सुझा दिया गया था तो उस पर गौर करना उचित क्यों नहीं समझा गया ? उसे विलंब से लागू करने से उसके दुष्परिणाम आज जनता भोग रही है कि नहीं ? यदि उन्हे (प्रवासी मजदूरों) तभी उन जगहों से समय रहते हटा दिया गया होता तो वो सुरक्षित अपने घर पहुंच गये होते कि नहीं ? और वो कोरोना कैरियर न बनते, जिसका कारण है कि कोरोना देश के कोने-कोने तक पहुंच गया, ज्ञात हो कि कोरोना के नियम अनुपालन कराने के दिशा निर्देश जारी करना गृहमंत्रालय के ही आधीन, आज देश सरकार की कोरोना नीति के कारण वैश्विक स्तर पर दूसरे पायदांपर जा पहुंचा अभी भी वक्त है कि सरकार भेजे गये प्रस्ताव पर गौर करले अन्यथा और भी बुरे दुष्परिणाम देखने को मिलेंगे, जिसकी सजा कोई और नहीं जनता ही उठा रही है, वो दिन दूर नहीं जब हम कोरोना विश्व गुरू बन कर देश का परचम फहरा रहे होंगे, हो सकता है कि संभत: ऑक्टूबर के पहले हफ्ते में ही ये दृश्य देखने को मिल जाये।
दुनियां में हर कोई कोरोना को लेकर तबाह है लेकिन शिक्षा माफियाओं की आज भी बल्ले-बल्ले
इतना ही नहीं देश कोरोना के प्रताप से झुलस गया है, बडी-बडी कम्पनिया कारखाने या तो डूब गये या डूबने के कगार पर हैं, लेकिन शिक्षा माफियाओं की अभी भी बल्ले-बल्ले है, ना जाने कितने अभिभावक बेरोजगार हो गये न जाने कितने अभिभावकों की रोजी-रोटी खतरे में है, शिक्षा माफियानों ने अपनी दुकान ऑनलाईन के बहाने जारी कर रखी है, और अब तो वो अभिभावकों के ऊपर अपना प्रेशर बना रहे हैं कि वो बच्चो की फीस जमा करें, जिसे लेकर अब कई जगहों पर प्रदर्शन भी जारी हैं, अभिभावकों का कहना है कि जब बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं तो फिर फीस कैसी ? ऑनलाईन के माध्यम से कुछ बच्चों को ही इसका लाभ मिल पा रहा है वो भी आधा-अधूरा उस पर मां-बाप के लिये सिर दर्द ज्यादा है कि वो ऑनलाईन पढाई के लिये मोबाईल या कम्पूटर का इंतजाम करें उसके बाद इंटरनेट की व्यवस्था करें साथ ही उनके लिये टाईम निकालें ताकि बच्चों वो असिस्ट कर सकें, इस पर भी एक बडी समस्या ये कि मां-बाप पढे लिखे हैं तो गलीमत है अन्यथा पढाई जीरो बटा सन्नाटा, उसके बावजूद इतने सारे खर्च के बाद कोरोना काल की मार और फिर फीस भरने का दबाव ये कहाँ से उचित है इसका समाधान सरकार को अवश्य करना चाहिये कि नहीं या फिर सरकार को चाहिये कि वो अभिभावकों को आर्थिक मद्द करे ? लेकिन इतना तो मान ही लीजिये कोरोना में सबका धंधा मंदा हो गया हो लेकिन शिक्षा माफिया आश्वस्त हैं !