ऐसा ज्ञात हुआ है कि सेन्सर बोर्ड द्वारा 1 दिसम्बर को फिल्म ‘पद्दमावती’ की रिलीज को रोकने के लिये सायद तकनीकी हवाले के सहारे संभव प्रयास की असंका है। सायद ये संभव भी है, क्योंकि जिस प्रकार से कुछ संगठनों व राजशाही घराने द्वारा भंसाली की फिल्म का विरोध चल रहा है। जो सरकार के गले की फांस बनकर रह गई।
ऐसा प्रतीत होता है कि अब सारा दारोमदार ‘फिल्म सेन्सर बोर्ड पर निर्भर है, और वही एक सरल व अचूक उपाय है, जिसके सहारे सरकार की फांस आसानी से निकल सकती है। क्योंकि अब तो सरकार के मंत्री भी इस मैदान में कूद पड़े है। क्योंकि चुनावी समर भी हावी है, ऐसे में कोई भी रिस्क नहीं लेना चाहेगा।
लेकिन सवाल एक ये भी उठता है कि क्या ये उस फिल्म निर्माता के साथ नाइन्साफी नहीं है, क्या कानून चन्द व्यक्तियों के हाथ की कठपुतली बन कर रह गया है, जो सरेआम टीवी चैनलों के माध्यम से नांक काटने, तेजाब डालने, और जानमाल का नुकसान पहुंचाने, यहाँ तक बिना किसी साक्ष के एक महिला का अपमान किया जाना कहाँ तक जायज है, साथ ही साथ फिल्म देखने वालों को भी अंजाम भुगतने की धमकी तक दिया जाना।
क्या देश में कानून नाम की कोई चीज है भी के नहीं? यदि किसी समाजिक संगठन या राजधराने को आसंका है कि उस फिल्म में किसी समाज विशेष को आहत पहुंचाई गई है तो उन सभी संगठनों व राजधराने को टीवी चैनलों के माध्यम से नहीं बल्कि न्यायपालिका का सहारा लेना चहिये था ना कि चैनलों पर आकर अपनी अभिव्यक्ति अभिव्यक्त करनी चाहिये थी ।
लेकिन जब सरकार द्वारा एक स्वतंत्र संस्था की व्यवस्था की गई है ‘फिल्म सेन्सर बोर्ड’ के रुप में तो ये उसका काम है कि उस फिल्म में क्या दिखाने लायक है और क्या नहीं, ये तो उसकी जिम्मेदारी है कि ऐसी कोई भी फिल्म प्रदर्शित न होने पाये जो हमारें समाज के विरुद्ध हो, तो जवाबदेही सेन्सर बोर्ड की है तो उसे उसका कार्य करने देना चाहिये । न कि कोई व्यक्ति विशेष या संगठन को।
अन्यथा सरकार को फिल्म सेन्सर बोर्ड को बन्द कर देना चाहिये। यदि उसकी विश्वस्यनीयता पर संदेह है, ऐसे ज्वलंन्त विषय पर सरकार व न्यायपालिका को संज्ञान अवश्य लेना चाहिये, ताकि कानून व्यवस्था बाधित न हो, और ना ही किसी के साथ नाइंसाफी होने पाये, चाहे वो समाज के पैरोकार हो या समाज को इतिहास से रूबरू कराने वाले फिल्म निर्माता ।