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Saturday, April 27, 2024

आपका भरोसा ही, हमारी विश्वसनीयता !

आपकी अभिव्यक्ति – 6 महीने बाद देशभर के 90% अखबार होंगे बंद, लाखों अखबार कर्मी होंगे बेरोजगार ? —- रवि जी. निगम / के के अरोरा

सवाल ये उठता है

कि एक तरफ सरकार देश को पूरी तरह से पेपर लेस वर्क (कागज के इस्तेमाल कम/बन्द करने) पर जोर दे रही है डिजिटलायीजेसन कर डिजिटल इंडिया योजना को बढ़ावा दे कर, जिसका प्रचार प्रसार भी इसी मीडिया के माध्यम से ही किया जा रहा है, लेकिन मीडिया के उस कड़ी पर प्रहार करने की अप्रत्यक्षित कोशिस भी जारी है, जिसका विपक्ष में रहते हुये इसी सरकार द्वारा अप्रत्यासित लाभ कभी लिया गया था, अब वही मीडिया आखों की किरकिरी बना हुआ है, यही नहीं आज तक जो पूर्व की सरकारों यहाँ तक इमरजेन्सी के दौर में भी उस सरकार द्वारा इतना बड़ा हमला नहीं बोला गया, जितना कि आज की सरकार के द्वारा किया जा रहा है।

ये सरकार मीडिया की सुरक्षा के लिये उतनी चिन्तित नहीं है जो जान पर खेलकर अपना कर्तव्य व दायित्व के निर्वहन करने पर अग्रणी व तत्पर रहती है, जिसमें छोटे व मझोले तथा साप्ताहिक अखबार अपनी विशेष भूमिका निभाते हैं, जिन्हें सरकार द्वारा कोई लाभ भी सायद ही मिल पाता हो, जिन्हें अपने अस्तित्व बचाये रखने के लिये सरकार द्वारा कोई सहयोग तक प्राप्त नहीं होता है, लेकिन सरकार उसने ये आपेक्षा करती है कि वो अपने प्रकाशन का पूर्ण विवरण तत्काल दें अन्यथा उनके अखबार का पंजीकरण रद्द कर सकती है केन्द्र सरकार !

क्या सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ऐसे कानून लाने के लिये संजीदा / प्रयासरत है ? तो क्या मंत्रालय ऐसे छोटे , मझोले तथा साप्ताहिक समाचार पत्रों के लिये कम से कम दो हजार प्रति छापने के लिये सहयोग हेतु मुफ्त अखबारी कागज को प्रति पंजीकरण उपलब्ध कराने का प्रावधान करने जा रही है क्या या करेगी ? ताकि सुचारू रूप से प्रकाशन कर सूचना विभाग व अन्य सरकारी विभाग / मंत्रालय (केन्द्र / राज्य) को प्रेषित की जाने व विवरण उपलब्ध कराने में मदद मिल सके । अन्यथा सरकार का विवरण उपलब्ध न कराये जाने पर पंजीकरण रद्द करने का फरमान कहाँ तक न्याय संगत माना जाना चाहिये ?

तो क्या सरकार को अखबारों को भी डिजिटलाईजेशन की ओर ले जाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये या बढ़ावा नहीं दिया जाना चाहिये ? ताकि इस क्षेत्र को इसके माध्यम से और भी सशक्त किया जा सके ? आज यदि प्रिन्ट मीडिया की बदहाली का सबसे बड़ा कारण है तो उसका प्रकाशन / मुद्रण जिससे न तो सरकार को कोई खाशा लाभ होता हैै बशर्ते मुद्रक / प्रकाशक उसकी मार झेलते हैं जिसमें कोई सरकारिया मदद भी प्राप्त न होने से उन्हे आर्थिक हानि के अलावा कुछ हाथ नहीं लगता । तो क्या इस पर विचार नहीं किया जाना चाहिये ? जो सरकार का इस क्षेत्र में एक सहासिक कदम होगा , इससे सरकार के खजाने पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, क्या इस क्षेत्र से जुड़े लोग देश के नागरिक नहीं हैं ? क्या इन्हे सरकार की तरफ से ऐसा गैर आर्थिक लाभ नहीं दिया जाना चाहिये ?

क्योंकि इस क्षेत्र से जुड़े लाखों युवक बिना किसी स्वार्थ के निस्वार्थ भाव से भी कार्यरत हैं जो सरकार तक सूचना पहुंचाने में मदद करते हैं। वहीं छोटे पत्रकार निष्पक्षता के साथ सच्चाई को उजागर करने में कहीं न कहीं सरकार या विपक्ष की मदद ही करते हैं, जो बिना सरकारी खर्च के सरकार तक पहुंचती है । और जहाँ पत्रकार तंग हालातों में भी अपनी सेवाये प्रदान करने में तत्परता के साथ देशहित व समाजहित में कार्य करता रहता है । उसके लिये उन पर फर्जी होने का भी आरोप लगता है क्यों ? वहीं राजनैतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के ऊपर फर्जी होने का आरोप क्यों नहीं लगता है ? इनके पास वो कौन सी अहर्तायें / प्रमाण होता है या इनसे क्यों नहीं मांगा जाता है ?

वहीं संपादकों / पत्रकारों के लिये अहर्तायें लागू करना कितना उचित है ? क्या सरकार को पहले कुकुरमुते की तरह उगी पार्टियों के अध्यक्ष व उनके नेताओं के लिये कोई नियम कायदों का प्रवधान किया गया है या किया जायेगा ? या सिर्फ पत्रकार / पत्रकारिता के लिये द्वेषपूर्ण विचार से इसकी आजादी / स्वतंत्रता पर प्रहार किया जायेगा ? यदि ये पत्रकारिता में फैले भ्रष्टाचारी या फर्जी पत्रकारों के खिलाफ मुहिम है तो उनके लिये सख्त नियम बनाये जाये जो ऐसे कार्यों में लिप्त पाये जाते हैं न कि उनकी वजह से निष्पक्षता से जनता और सरकार के मध्य एक कड़ी की तरह कार्य कर रहे हैं उनकी अभिव्यक्ति से क्षुब्ध होकर ऐसी असंगत व अन्याय पूर्ण कार्यवाही को कानून के रूप में लागू किया जाना चाहिये ।

  • मानवाधिकार अभिव्यक्ति , आपकी अभिव्यक्ति

रिपोर्ट – के के अरोरा

डीएवीपी के खिलाफ कोर्ट जायेगा ‘अखबार बचाओ मंच’, पहले राजनीतिक दलों से मांगों फिर अखबारों से मांगना हिसाब! अस्तित्व बचाने की आखिरी कोशिश में ‘अखबार बचाओ मंच’ न्यायालय की शरण में जायेगा। मंच ये तर्क रखेगा कि जब राजनीतिक दल अपने चंदे का हिसाब और टैक्स नहीं देते तो फिर अखबारों पर एक-एक पैसे का हिसाब और नये-नये टैक्स क्यों थोपे जा रहे हैं।

दरअसल दो-तीन महीने बाद पूरे देश के अखबारों का नवीनीकरण होना है। जिसके लिये डीएवीपी द्वारा एक-एक कागज और पाई-पाई का हिसाब मांग लेने से देश के 95%अखबार नवीनीकरण नहीं करा पायेंगे। अखबार बचाओ मंच का कहना है कि अखबारों से संबधित सरकार की पालिसी के खिलाफ डीएवीपी मनमाने ढंग से अखबारों के साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है। सरकार की विज्ञापन नीति के हिसाब से एक करोड़ से अधिक टर्नओवर वाले अखबारों को बैलेंस शीट देना अनिवार्य है। जबकि डीएवीपी ने बीस लाख के ऊपर के टर्नओवर वाले अखबारों के लिए बैलेंस शीट अनिवार्य कर दी है।

पूरा मामला जानिए :-
शायद ही कोइ ऐसा व्यवसाय होगा जिसमे कोई manipulation न होता हो , उसी तरह नियमों और कानूनों को देखते हुए देश के 99% मान्यता प्राप्त अखबारों को भी प्रसार संख्या में manipulation करना पड़ता है। बड़े-बड़े ब्रांड अखबार भी बीस हजार कापी को दो लाख प्रसार बताने पर मजबूर है। इस झूठ की मंडी की जिम्मेदार सरकार की गलत नीतियां भी हैं। यदि कोई अपने अखबार का वास्तविक दो हजार के अंदर का प्रसार बताता है तो उसे डीएवीपी से विज्ञापन की सरकारी दरें नहीं मिलती। और यदि दो हजार से पंद्रह हजार तक के प्रसार का दावा करता है तो उसे लघु समाचार की श्रेणी में रखा जाता है। लघु श्रेणी की विज्ञापन दर इतनी कम होती हैं कि इन दरों से कम संसाधनों वाला अखबार भी अपना बेसिक खर्च भी नहीं निकाल सकता है। यूपी सहित देश के बहुत सारे राज्यों में कम प्रसार वाले अखबारों के पत्रकारों को राज्य मुख्यालय की मान्यता भी नहीं मिलती। शायद राज्य सरकारों का मानना है कि कम प्रसार वाले अखबारों में राज्य मुख्यालय यानी प्रदेश स्तर की खबरें नहीं छपतीं हैं। सरकारों की इन गलत नीतियों के कारण भी प्रकाशक अपना प्रसार बढ़ा कर प्रस्तुत करता है।

अब ये झूठ देश के करीब 95% अखबारों को ले डूबेगा। और देश के लाखों अखबार कर्मी और पत्रकार बेरोजगार हो जायेंगे। यानी सरकारी नीतियों और प्रकाशकों के टकराव की इस चक्की में आम अखबार कर्मी/पत्रकार पिस जायेंगे।
क्योंकि अब बताये गये प्रसार के हिसाब से करोड़ों की राशि के कागज की खरीद और अन्य प्रोडक्शन कास्ट का हिसाब दिये बिना डीएवीपी अखबारों का नवीनीकरण नहीं करेगा। अखबारी कागज पर जीएसटी होने के कारण अब तीन का तेरह बताना संभव नहीं है।

यही कारण है कि अखबारी कागज पर से जीएसटी हटाने की मांग को लेकर प्रकाशकों, अखबार कर्मियों और पत्रकारों ने खूब संघर्ष किया। सरकार के नुमाइंदों को दर्जनों बार ज्ञापन दिये। लखनऊ से लेकर दिल्ली तक धरना-प्रदर्शन किये। वित्त मंत्री से लेकर पीएमओ और जीएसटी कौंसिल से लेकर विपक्षी नेता राहुल गांधी तक फरियाद की। फिर भी हासिल कुछ नहीं हुआ।

डीएवीपी ने अखबारों की नयी मान्यता के आवेदन पत्र में अखबारों से एक एक पैसे का पक्का हिसाब मांगा है। यानी कागज की जीएसटी से लेकर बैंक स्टेटमेंट मांग कर ये स्पष्ट कर दिया है कि तीन महीने बाद नवीनीकरण के लिए देशभर के सभी अखबारों से ऐसे ही हिसाब मांगा जायेगा। और इस तरह का हिसाब देशभर के 95%अखबार नहीं दे सकेंगे।

इस संकट से लड़ने के लिए पत्रकार संगठन एक बार फिर सक्रिय हो गये हैं। इन संगठनों का मानना है कि अखबार बंद होने से प्रकाशक तो हंसी-खुशी अखबार बंद करके किसी दूसरे धंधे में आ जायेंगे लेकिन देश के लाखों अखबार कर्मी/पत्रकारों के पास रोजगार का दूसरा विकल्प नहीं होगा।

इस बार पत्रकार संगठन सरकार से पहले तो ये मांग करेंगे कि अखबारों के कम और वास्तविक प्रसार को सरकारी विज्ञापनों की इतनी दरें मिल जायें कि कम संसाधनों का बेसिक खर्च निकल आये। दूसरी महत्वपूर्ण मांग ये होगी कि कम प्रसार वाले अखबारों के पत्रकारों की राज्य मुख्यालय की प्रेस मान्यता बरकरार रहे।

दस लाख से कम कुल वार्षिक विज्ञापन पाने वालों से डीएवीपी आय-व्यय का हिसाब ना मांगे। कम संसाधनों, कम आमदनी और कम विज्ञापन पाने वाले इन अखबारों को जीएसटी से मुक्त किया जाये। अखबारों को इन संकटों से बचाने के लिए लड़ाई लड़ रहा पत्रकार संगठनों का साझा मंच ‘अखबार बचाओ मंच’ का कहना है कि यदि ये मांगे भी पूरी नहीं हुयीं तो न्यायालय का सहारा लेना पड़ेगा।

मंच का सबसे मजबूत तर्क होगा कि जब राजनीतिक दल चंदे का हिसाब देने के लिए विवश नहीं हैं तो कम संसाधन और बहुत ही कम सरकारी विज्ञापन पाने वाले देश के अधिकांश अखबार एक-एक पैसे का हिसाब देने के लिए विवश क्यों किए जा रहे हैं।

कार्पोरेट के अखबार करोड़ों रुपये की लागत लगाकर अखबारों में घाटे सह भी सकते हैं। क्योंकि वो अपने मुख्य व्यापार से अरबों रूपये का मुनाफा कमाते है। इनके मुख्य व्यापारों में सरकारों के सहयोग की जरूरत पड़ती है। सरकारों को समाचार पत्रों में सरकारों के गुड वर्क को ज्यादा उजागर करने और खामियों को छिपाने की गरज रहती है। इन कारणों से देश की जनता कार्पोरेट के ब्रांड अखबारों से विश्वसनीयता खोती जा रहे है। पाठक सच पढ़ना चाहता है। उसका रूझान छोटे-छोटे अखबारों की तरफ बढ़ रहा है। लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कार्पोरेट और पेड न्यूज की बेड़ियों में ना जकड़ जाये इसलिए पाठक चार पन्ने के छोटे अखबार में चार सच्ची खबरें पढ़ना चाहता है। जिस तरह राजनीतिक दलों की नीतियों से प्रभावित होकर लोग गुप्त दान करते हैं ऐसे ही छोटे अखबारों को अभी अब लोग दान स्वरुप टुकड़ों – टुकड़ों में कागज देने लगे हैं। जब राजनीतिक दलों के चंदे का हिसाब नहीं तो छोटे अखबारों का हिसाब क्यों?

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