रिपोर्ट – सज्जाद अली नायाणी
देश – धर्म के आधार पर नागरिकता के नए क़ानून के ख़िलाफ़ जारी जन आंदोलन की कमान छात्रों ने संभाल रखी है और पुलिस की बर्बरता भी उनके क़दमों में लर्ज़ा पैदा नहीं कर सकी है, बल्कि हर हमले के बाद वे पहले से और ज़्यादा मज़बूदी से ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद कर रहे हैं।
आज तक दुनिया में जिस इंक़लाबी आवाज़ में भी छात्रों और बुद्धिजीवियों की आवाज़ सबसे ऊंची रही है, उसे दुनिया की कोई ताक़त मिटा नहीं सकी है। लेकिन हमेशा ही ताक़त के नशे में डूबे हुए ज़ालिम हुकमरानों ने इस आवाज़ को सबसे कमज़ोर समझकर ज़ुल्म की बुनियाद पर उसे दबाने की नाकाम कोशिश की है।
ऐसे माहौल में जहां छात्रों पर पुलिस गोलियां बरसा रही है, लाठी और डंडों से उनकी हड्डियां तोड़ रही है, उनकी आंखें फोड़ रही है, उनके ख़िलाफ़ मुक़दमे दर्ज कर रही है, उन्हें मानसिक रूप से यातनाएं दे रही है और उनके परिवार को धमकियां दे रही है, छात्र शांतिपूर्ण तरीक़े से अपनी आवाज़ बुलंद कर रहे हैं तो उसकी गूंज से तख़्त व ताज लरज़ जा रहे हैं।
इस आंदोलन में उर्दू की इंक़लाबी शायरी, छात्रों का सबसे प्रभावशाली हथियार बनी हुई है, लेकिन सरकारी कारिंदों ने अब इसे भी निशाना बनाना शुरू कर दिया है।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और जामिया मिल्लिया इस्लामिया में छात्रों पर पुलिस की बर्बरता के ख़िलाफ़ और सीएए के समर्थन में पिछले हफ़्ते आईआईटी कानपुर में छात्रों ने एक प्रदर्शन के दौरान, उर्दू के मशहूर इंक़लाबी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक मशहूर नज़्म पढ़ी तो उन पर “घृणा फैलाने” का आरोप लग गया।
आईआईटी कानपुर में प्रोफ़ेसर वाशीमंद शर्मा ने छात्रों के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज कराते हुए कहा कि मुझे नज़्म की इन लाइनों पर सबसे ज़्यादा आपत्ति हैः
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिरां
रूई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे
सब तख़्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
शर्मा का आरोप है कि इसमें समस्त बुतों को नष्ट करने की बात कही गई है और आख़िर में सिर्फ़ अल्लाह का नाम बाक़ी रह जाएगा। मुझे कविता का संदर्भ नहीं मालूम, लेकिन जो कहा जा रहा है वही अहम है।
आईआईटी कानपुर के छात्रों पर लगे आरोपों की जांच के लिए जहां एक समिति बैठा दी गई है, वहीं पूरे देश में लाखों लोग इसी तरह की नज़्में पढ़ रहे हैं और प्रदर्शनों के दौरान ऐसी तख़्तियां हाथों में उठाए रहते हैं, जिन पर इस तरह के शेर लिखे होते हैं।
हालांकि फ़ैज़ पाकिस्ता के एक कम्यूनिस्ट शायर थे, जिन्होंने 1979 में पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह ज़ियाउल हक़ के ख़िलाफ़ “हम देखेंगे” नज़्म लिखी थी। इसी तरह से उनकी दूसरी नज़्म बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे भी भारत में जारी आंदोलन के दौरान बड़े पैमाने पर पढ़ी जा रही थी।
प्रदर्शनों के दौरान प्रदर्शनकारियों द्वारा गायी जाने वाली दूसरी सबसे लोकप्रिय नज़्म भी एक दूसरे मशहूर उर्दू शायर हबीब जालिब की है।
जालिब की नज़्म दस्तूर को युवा भारतीयों के दौरान नई पहचान उस वक़्त मिली जब इस साल के शुरू में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के एक नेत्रहीन छात्र शशि भूषण समद ने इसे विरोध प्रदर्शन के दौरान पढ़ा थाः
दीप जिस का महल्लात ही में जले
चंद लोगों की ख़ुशियों को ले कर चले
वो जो साए में हर मस्लहत के पले
ऐसे दस्तूर को सुब्ह-ए-बे-नूर को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
मैं भी ख़ायफ़ नहीं तख़्त-ए-दार से
मैं भी मंसूर हूं कह दो अग़्यार से
क्यूं डराते हो ज़िंदां की दीवार से
ज़ुल्म की बात को जहल की रात को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
फूल शाख़ों पे खिलने लगे तुम कहो
जाम रिंदों को मिलने लगे तुम कहो
चाक सीनों के सिलने लगे तुम कहो
इस खुले झूट को ज़हन की लूट को
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
तुम ने लूटा है सदियों हमारा सुकूं
अब न हम पर चलेगा तुम्हारा फ़ुसूं
चारागर दर्दमंदों के बनते हो क्यूं
तुम नहीं चारागर कोई माने मगर
मैं नहीं मानता मैं नहीं जानता
इस नज़्म को गाने का समद का वीडियो ख़ूब वायरल हुआ, जिसके बाद देश में जारी आंदोलन के साथ ही विभिन्न मंचों पर उनसे इसे गाने की फ़रमायश की जाने लगी।
साभार पी.टी.