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Wednesday, May 8, 2024

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संपादक की कलम से – आज का मीडिया बिकाऊ ? या काटने में लगी है चुनावी फसल ? —- रवि जी. निगम

सौ. काल्पनिक चित्र

क्या आज का मीडिया गरीबों और बेरोजगारों व देश की आर्थिक बदहाली तथा किसानों के मुद्दे न उठाकर , जनता को हिन्दुत्ववाद और राष्ट्रवाद की ओर चुनाव की दिशा को दिगभ्रमित कर ले जाने का प्रयास कर रही है ?

क्या देश की जनता इसे अच्छा कदम मानती है ? क्या ऐसे सवाल उठना लाज़मी नहीं हैं ? ऐसा क्या है जो मीडिया को इस ओर खींच कर ले जाने पर मजबूर कर रहा है ? क्या इसे बीजेपी के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवानी के उन वक्तव्य पर गौर नहीं किया जाना चाहिये, जब उन्होने वर्तमान सरकार के कार्यों की अप्रत्यक्ष आपातकाल से तुलना कर डाली थी , तब ये माना जा रहा था कि प्रधानमंत्री मोदी ने उनके प्रधानमंत्री पद को हथिया लिया है जिस वजह से वो ऐसे वक्तव्य दे रहे हों ?

क्या वाकई में ऐसा ही कुछ महशूस किया जा सकता है , आडवानी जी का हालिया ट्वीट क्या ऐसा ही कुछ प्रदर्शित नहीं कर रहा है ? जब उन्होंने अपनी पार्टी के आदर्श के पाठ को दोहराते हुये कहा कि बीजेपी अपने विचारों से भिन्नता रखने वालों को कभी भी विरोधी के अलावा देशद्रोही नहीं मानती , साथ ही ये भी बताने की कोशिस की पहले राष्ट्र फिर पार्टी अंत में व्यक्ति का हित होता है , क्या हमने इस पर बहस नहीं करनी चाहिये कि ऐसी कौन सी परिस्थित उत्पन्न हुई जब इस तरह की बात कहने पर उन्हे मजबूर कर दिया , क्या इसे ही सच मान लिया जाना चाहिये की वो सीट कटने या उन्हे सक्रीय राजनीति से बहार कर दिये जाने मात्र से क्षुब्ध होकर इस तरह की टीका टिप्पणी की होगी ? क्या वही एक व्यक्ति थे जिनके साथ ऐसा दुर्व्यवहार मात्र किया गया , ऐसे शीर्ष के कई दिग्गज थे जो इसका शिकार हुये , परन्तु कुछ एक को छोड़ सबने ऐसा विरोध क्यों नहीं किया ? क्या वो इतनी हिम्मत नहीं जुटा सके ?

क्या देश के तथाकथित नं०१ के खिताबों से नवाजे जाने वाले कुछ चैनल के एकंर पार्टी विशेष के प्रवक्ता के रूप में अपनी भूमिका विशेष निभा नहीं रहे हैं , और पत्रकारिता का हवाला दे देकर विरोधियों के मुँह में ताला जड़ने का काम नहीं कर रहे , एक चैनल के शो एंकर को एक राजनीतिज्ञ ने काफी भला-बुरा तक कहा जिस पर एंकर उससे माफी मांगने तक का दबाव बनाता दिखा लेकिन उस नेता ने उसकी एक न सुनी, आज चैनलों पर हो रही बहस में एंकर व उसके सहयोगी पत्रकार मार्केटिंग मैनेजर और सेल्समैन की तरह किसी ब्रांड को चमकाने वाली भूमिका में नजर नहीं आ रहे हैं क्या ? क्या भारी भरकम सेलरी पाने की चाहत ने उन्हे ऐसा बनने पर मजबूर कर दिया है ? या किसी दबाव के कारण ऐसा करने पर मजबूर हैं ? लेकिन क्या ये पत्रकारिता के स्तर को गिराता नही है ?

जबकि कहा जाता है यदि मीडिया सरकार की भाषा बोलने लगे तो समझिये कुछ तो ठीक नहीं है । क्योंकि मीडिया जनता और सरकार के बीच की एक कड़ी है , लेकिन जब मीडिया जनता की आवाज उठाना बन्द कर दे , और सरकार की भाषा बोलना शुरू कर दे , तो कहीं कुछ तो गड़बड़ है , क्योंकि मीडिया जनता की आवाज होती है न कि सरकार की , उसका कर्तव्य होता है कि गरीब , दबे कुचले , असहाय , अशिक्षित , बेरोजगारों , मजदूरों और मजबूरों की आवाज को सरकार के बहरे कानों तक पहुंचाये मीडिया ही जनता की मसीहा होती है, लेकिन जब वो सरकार की मसीहा बन जाये तो समझो देश का बेड़ागर्ग निश्चित है।

क्या ये सच नहीं हर पार्टी का अपना – अपना जनाधार होता है , सबके अपने अपने समर्थक होते हैं जिनकी प्रतिशतता १० से १५ प्रतिशत से अधिक नहीं होती, तो क्या उन्हे खुश करने से या उनके समर्थन से ही सरकारों का फैसला सुनिश्चित होता है ? क्या उसी आधार पर सरकारें बनती बिगड़ती हैं ? क्या उनके आधार पर जनता निर्णय करती है ? क्या उसी आधार पर जीत और हार का आकलन करना उचित है। क्या हवा / बयार इसी का मानक है ? या जनता का मूड कुछ और ही होता है ? क्या आज की जनता मीडिया से ज्यादा जागरुक नहीं है ? या मीडिया जनता को बिलकुल बेवकूफ (बुड़बक) समझती है या जनता मीडिया को बुड़बक बना देती है ? जैसे की हाल ही के चुनाव में जनता ने उसे बनाया है।

मीडिया का मतलब क्या देश की सुप्रीम पावर , क्या उसकी कोई जवाबदेही नहीं होती है ? क्या निष्पक्षता के साथ पक्ष , विपक्ष से सवाल नहीं किये जाने चाहिये , या सरकार का प्रवक्ता बन विपक्ष से ही उलटा सवाल किये जाने चाहिये, आज का दौर कहें तो उलटी गंगा बह रही है , जबकि सवाल करना विपक्ष का काम होता है और जवाब देना पक्ष का काम , लेकिन आज सवाल पक्ष करता है और मीडिया उसको धार देती है , और विपक्ष से जवाब मांगती नजर आती है , और यदि विपक्ष सरकार को यदि किसी मुद्दे पर घेरना चाहे तो तथाकथित मीडिया एंकर व हितैषी पत्रकार तुरन्त बचाओं में खडे़ हो जाते हैं आखिर क्यों ? इन दिनों कुछ मीडिया संस्थान व उनके एंकर सिर्फ बस सिर्फ हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद को धार देने पर ही उतारू हैं , उन्हे बेरोजगारी , गरीबी , विकास , किसान , मजदूर , मजलूम , शिक्षा , मंहगाई , आतंकवाद , अपराध जैसे ज्वलंत सवाल मुद्दे नहीं लगते हैं आखिर क्यों ? अवाज उठाने वाला अखिर देशद्रोही क्यों ? सवाल पूछने वाला आखिर देशद्रोही क्यों ? हम देश को किस गर्त में ले जाना चाहते हैं ? आखिर इसका जवाब कौन देगा ? ये क्या २१वीं सदी की पहचान है ? किसी न किसी को तो आगे बढ़ना ही होगा , क्या हम एक और गुलामी की ओर नहीं बढ़ रहे हैं ?

विचार करना आवश्यक है। नहीं तो, फिर पछताये होत का, जब चिडिया चुग गयी खेत ।

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ना ही पक्ष ना ही विपक्ष, जनता के सवाल सबके समक्ष

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