लोगों में सवाल उठना लाज़मी है, जिस प्रकार VVPAT के इस्तेमाल के बाद ईवीएम के साथ छेड़-छाड़ का खेल सामने आ रहा, इससे तो ये पूर्ण रूप से सावित हो जाता है, कि जो 2014 के आम चुनाव के बाद ईवीएम को लेकर भिन्न-भिन्न पार्टियाँ आरोप लगा रहीं थी, तो क्या सच्च था ? क्योंकि जिस तरह से लहर के बाद आंधी और उसके बाद सुनामी आई थी, और यही नही 282+ सीटों का परफेक्ट आकड़ा भी यही संदेह उत्पन्न करता है, साथ ही एक सवाल और जहन में घर करता है कि जब इंदिरा गाँधी के एमरजेन्सी के बाद कांग्रेस को लोक नायक जय प्रकाश नारायण की क्रान्तकारी लहर ने उसे सत्ता से बेदखल कर दिया था , तब भी कॉंग्रेस को इतनी बड़ी करारी हार का सामना नही पड़ा था और 150+थी, यही नही बाबरी बिध्वन्स के बाद जब राम मंदिर लहर अपनी चरमसीमा पर थी, और “बच्चा-बच्चा राम का” का नारा बच्चे-बच्चे की जुबा पर था, तब भी इतनी बड़ी फज़ीहत कॉंग्रेस की नहीं हुई थी, लेकिन 2014 में ऐसी कौन सी छड़ी बीजेपी के हाथ लग गई थी, कि लहर के बाद आंधी और उसके बाद सुनामी आ गयी और बीजेपी 282 के आकड़े को पार कर 283 के आकड़े पर जा पहुंची, लेकिन दिल्ली में चन्द महिनों बाद हुये विधानसभा चुनाव में महज 2 सीटों पर सिमट गई, जबकि लोकसभा की सातों की सातों सीट पर उसका कब्जा था। ये केजरीवाल की टीम की सूझबूझ का कमाल था , क्योंकि कहते हैं कि दूध का जला मठ्ठा फूक-फूंक कर पीता है। केजरीवाल एण्ड कंपनी में आई टी से जुड़े शीर्ष के नेता थे, जो ईवीएम-ईवीएम का खेल समझ चुके थे, उसका ही परिणाम था की कांग्रेस का तो सूपड़ा साफ हो गया और सुनामी सून-सान में तब्दील हो गयी, और रही सही कसर लालू ने बिहार में पूरी कर दी। लेकिन यूपी में अखलेश की नादानी या कहें आपसी कलह में उलझे रहे और उनका ओवर कॉन्फीडेन्स उन्हें ले डूबा, और बीजेपी अपनी रणनीत में कामयाब हो गई, और ईवीएम-ईवीएम का खेल सफल रहा । यदि ऐसा नहीं है तो चुनाव आयोग इस बात की जांच निष्पक्षता से क्यों नही करा रहा, हर राज्य में 2014 के बाद से ईवीएम में जब भी गड़बड़ी की खबर आती है तो यही क्यों कि कोई भी बटन दवाओ तो वोट बीजेपी को जाता है, अब तो VVPAT मशीन भी इस बात की पुष्टी कर रही है। लेकिन ऐसी खबर क्यों नही आती है कि कोई भी बटन दवाओं तो वोट कांग्रेस को या दूसरी अन्य पार्टी को वोट जा रहा है। तो क्या अब सत्ता पर काबिज सत्ताधारी पार्टी एकछत्र राज कायम करना चाहती हैं ? क्या विपक्ष नाम को समाप्ति की ओर ले जाना चाहती है ? सत्ताधारी पार्टी क्या जनता पर जबरन अपनी नीतियाँ थोपना चाहती हैै ? क्या ये एक बहस का मुद्दा नहीं है ? यदि समय रहते इस पर विचार नहीं किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब विपक्ष की तरह पत्रकारिता दम तोड़ती नज़र आयेगी।
– रवि जी. निगम